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________________ २४३ : ६-२, ४३ ] ६. दानफलम् २ विहायागत्यात्रैव पूर्वविदेहे पुष्कलावतीविषये उत्पलखेटपुरेशवज्रबाहु-वसुंधर्योः पुत्रो वज्रजवोऽजनि । स्वयंप्रभागत्य तद्विषय एव पुण्डरोकिणीशवज्रदन्त लक्ष्मीमत्योः सुता श्रीमती जाता, प्राप्तयौवना सुखेन स्थिता। एकदास्थानस्थो वजूदन्तो द्वाभ्यां पुरुषाभ्यां विज्ञप्तः-देव, ते पितुर्यशोधरभट्टारकतीर्थकरपरमदेवस्य केवलं समुत्पन्नम् , श्रायुधागारे चक्रमुत्पन्नमिति च । तदैव कयाचिद्विक्षप्तो देव, देवागमावलोकनात् श्रीमती मूञ्छिता जातेति। तस्याः शीतलक्रियया प्रतीकारं कुरुतेति प्रतिपाद्य समवस्मृति जगाम चक्री, तद्वन्दनानन्तरं विशुद्धयतिशयेन देशावधियुक्तो जझे, तदनु दिग्विजयं चकार । इतः श्रीमती मौनेन स्थिता। तत्पण्डितयैकान्ते मौनकारणं पृष्टा सावोचदहं देवागमनदर्शनेन पूर्वभवान्' स्मृत्वा मौनेन स्थिता। पण्डितया तान् भवान् कथयेत्युक्ते सा स्वातीतभवानाह-हे पण्डिते, धातकीखण्डद्वोपपूर्वमन्दरापरविदेहगन्धिलविषयपाटलीग्रामे वैश्यनागदत्तवसुमत्योः पुत्रा नन्दि-नन्दिमित्र-नन्दिसेन-वरसेन-जयसेनाख्याः पश्च, पुज्यौ मदनकान्ता-श्रीकान्तेऽहमष्टमी यदा गर्भे स्थिता पिता मृत उत्पत्त्यनन्तरं भ्रातरो भगिन्यौं च, कतिपयदिनर्मातजननी च, कतिपयवर्षानन्तरं जनन्यपि। ततोऽहं छोड़कर-मरा और फिर इसी पूर्वविदेहके भीतर पुष्कलावती देशमें स्थित उत्पलखेट पुरके राजा वज्रबाहु और वसुंधरीके वज्रजंघ नामक पुत्र हुआ। और वह स्वयंप्रभा देवी उस ईशान कल्पसे च्युत होकर उसी पुष्कलावती देशके भीतर स्थित पुण्डरीकिणी पुरके राजा वज्रदन्त एवं रानी लक्ष्मीमतीके श्रीमती नामकी पुत्री हुई। वह क्रमशः यौवन अवस्थाको प्राप्त होकर सुखपूर्वक स्थित थी। एक समय वज्रदन्त राजा सभाभवनमें बैठा हुआ था। उस समय दो पुरुषोंने आकर निवेदन किया कि हे देव ! आपके पिता यशोधर भट्टारक तीर्थकरको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है। तथा आयुधशालामें चन्द्ररत्न भी उत्पन्न हुआ है। उसी समय किसी स्त्रीने आकर प्रार्थना की कि हे देव ! देवोंके आगमनको देखकर श्रीमती मूर्छित हो गई है । तब वज्रदन्त राजा उससे शीतोपचार क्रियाके द्वारा श्रीमतीकी मूर्छाको दूर करने के लिए कहकर समवसरणको चला गया। वहाँ यशोधर जिनेन्द्रकी वंदना करनेके पश्चात् विशुद्धिकी अधिकतासे उस वज्रदन्त चक्रवर्तीको देशावधिज्ञान प्राप्त हो गया। तत्पश्चात् उसने दिग्विजय किया । इधर श्रीमतीने मौन धारण कर लिया। तब पण्डिताने उससे एकान्तमें इस मौनके कारणको पूछा । उत्तरमें श्रीमतीने कहा कि देवोंके आगमनको देखकर मुझे पूर्वभवोंका स्मरण हुआ है। इसीसे मैंने मौनका आश्रय लिया है । तब पण्डिता बोली कि तो फिर तुम उन भवों का वृत्तान्त मुझे सुनाओ। इसपर उसने अपने पूर्व भवोंका वृत्तान्त इस प्रकारसे कहा- हे पण्डिते ! धातकीखण्ड द्वीपके पूर्व मेरु सम्बन्धी अपरविदेहमें एक गन्धिला देश है। उसमें एक पाटली नामका गाँव है। वहाँपर एक नागदत्त नामका वैश्य रहता था। उसकी पत्नीका नाम वसुमती था। इनके नन्दी, नन्दिमित्र, नन्दिसेन, वरसेन और जयसेन नामके पाँच पुत्र और मदनकान्ता व श्रीकान्ता नामकी दो पुत्रियाँ थीं । इनके पश्चात् जब मैं आठवीं पुत्री माताके गर्भमें आयी तब पिताका मरण हो गया । तत्पश्चात् मेरा जन्म होनेपर वे सब भाई और दोनों बहिनें भी मर गई । इसके पश्चात् कुछ ही दिनोंमें १. श श्रीमतिमंछिता । २. ब पूर्वभन् ि । ३. ज प श मौन स्थिता । ४. फ मृतः । ५. प भ्रातरी भगिन्यो श भ्रातरौ भगिनी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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