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________________ पुण्याकथाकोशम् [ ६-२, ४३ मत्पितैवंविधो ज्ञानी किं नरकं यास्यति । मुनिरुवाच- पापहेतुमेव जानाति, न पुण्य हेतुम् । ने गत्वा पृच्छ 'ताटव्यामन्यत् किं तिष्ठति' इति । यदि मां जानाति तर्हि त्वत्पिता ज्ञानी । तेन पृष्टः स न जानाति । तदा पुत्रेण लाक्षारसेन वापिका पूरिता । स तत्र क्रीडयितुं विवेशानन्देन तत् पिबति स्म । लाक्षारसं विज्ञाय तेनाहं छिद्रित इति च्छुरिकया तं मारयितुं धावन् स्वयं स्वस्याश्छुरिकाया उपरि पतितो मृतो नरकं गत इति सर्वे पौरवृद्धाः प्रतिपादयन्ति । तथान्योऽयेतत्संताने दण्डकाख्यो नृपोऽभूत्, देवी सुन्दरी पुत्रो मणिमाली । दण्डको मृत्वा स्वभाण्डागारेऽहिरभूत् । स मणिमालिनमेव तत्र प्रवेष्टुं प्रयच्छत्यन्यस्य खादितुं धावति । मणिमालिनैकदा रतिचारणाख्योऽवधिबोधस्तद्वृत्तान्तं पृष्टः । तेन यथावृत्कथिते तेनागत्याहि: संबोधितोऽणुव्रतानि जग्राहायुरन्ते सौधर्म गतः । स आगत्य दिव्यवस्त्राभरणैर्मणिमालिनं पूजयामास । एतत्कण्ठादिप्रदेशस्थानि तान्यभरणानि किं न भवन्ति । दृष्टानुभुक्त [ भूत ] कथामवधारयन्तु तथा ह्यस्य पितृपितामहः सहस्रवलः स्वतनयं शतबलं स्वपदे निधाय दीक्षितो मोक्षमुपजगाम । शतबलोऽपि स्वपुत्रातिबलाय राज्यं दत्त्वा २४० तत्पश्चात् मुनि बोले कि वह केवल पापके कारणको ही जानता है, पुण्यके कारणको नहीं जानता । तुम जाकर उससे पूछो कि उस वनमें और क्या है यदि वह मुझे जानता है तो समझो कि तुम्हारा पिता ज्ञानी है। तब पुत्रने जाकर पिता से वैसा ही पूछा । परन्तु वह इसे नहीं जानता था । ऐसी स्थिति में पुत्रने एक वापिकाको बनवाकर उसे रुधिर के स्थान में लाख के रससे भरवा दिया । तब अरविंद क्रीड़ा करनेके लिए उसके भीतर प्रविष्ट हुआ । परन्तु जब उसने उसका आनन्द के साथ पान किया तो उसे ज्ञात हो गया कि यह रुधिर नहीं है, किन्तु लाखका रस है । तब पुत्रकी इस धोखा - देहीसे क्रोधित होकर वह उसे छूरीसे मारने के लिए दौड़ा, किन्तु ऐसा करते हुए वह स्वयं ही अपनी उस छूरीके ऊपर गिरकर मर गया और नरकमें जा पहुँचा । इस वृत्तान्तको नगरके सब ही वृद्ध जन कहा करते हैं । इसके अतिरिक्त इसकी वंशपरम्परा में दण्डक नामका एक दूसरा भी राजा भी हो गया है । उसकी पत्नीका नाम सुन्दरी था। इनके एक मणिमाली नामका पुत्र था । दण्डक मरकर अपने भाण्डागारमें सर्प हुआ था । वह केवल मणिमालीको ही उसके भीतर प्रवेश करने देता था और दूसरेके लिए वह काटने को दौड़ाता था। एक बार मणिमालीने इस घटना के सम्बन्ध में किसी रतिचारण नाम अवधिज्ञानी मुनिसे पूछा । मुनिने उसके पूर्वोक्त वृत्तान्तको कह दिया । उसको सुनकर मणिमालीने भण्डागार में जाकर उस सर्पको सम्बोधित किया । इससे सर्पने अणुव्रतों को ग्रहण कर लिया । वह आयु अन्तमें मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ । उसने आकर मणिमालीकी दिव्य वस्त्राभरणों से पूजा की । इस महाबल के कण्ठ आदि स्थानों में सुशोभित ये आभूषण क्या वे ही नहीं हैं ? अर्थात् ही हैं। इसके अतिरिक्त आप लोग इस देखी और अनुभवमें आयी हुई कथाके ऊपर भी विश्वास करें - महाबल राजाके प्रपितामह सहस्राबलने अपने पुत्र शतबलको राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर थी। वे मुक्तिको प्राप्त हुए हैं। पश्चात् शतबल भी अपने पुत्र अतिचल के लिए राज्य देकर १. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श 'न' नास्ति । २. व प्रतिपाठोऽयम् । श 'तदा' नास्ति । ३. ब धावदयं स्वयं । ४, जपफश तथान्येप्येत । ५. श 'नृपो' नास्ति । ६. प यथा दृष्टानुभुक्तकथमव' । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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