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________________ : ६-२, ४३ ] ६. उपवासफलम् २ २३९ स्वयं बुद्धोऽब्रूत एतत्ते रूपादिकं धर्मजनितमिति धर्मः कर्तव्यः । इतरे शून्यवादिनो बभणुः सति धर्मिणि धर्माश्चिन्त्यन्ते । पूर्व परलोकिना जीवेन भवितव्यं पश्चात्परलोकचिन्तया । जीव एव नास्तीति किं धर्मेण । तान् प्रति तर्कवादेन स्वयंबुद्धो जीवसिद्धि विधाय श्रुतदृष्टानुभुक्त [ भूत् ] कथाजीवास्तित्वे दृष्टान्तेनाह - शृणुत हे सभ्याः, पूर्वमस्याम्नायेऽरविन्दो ब्राम राजाभूदेवी विजया पुत्री हरिश्चन्द्रकुरुविन्दो | एकदा अरविन्दस्य महान् दाघज्वरो जातः । स हरिश्चन्द्रं प्रार्थयति स्म पुत्र मां शीतलप्रदेशं नयेति । पुत्रस्तच्छीतल क्रियाकरणार्थ जलवर्षिणीं विद्यां प्रेषितवान् । सापि तमुपशान्ति नानैषीत् । एवं स यदा दुःखेन तिष्ठति तदा गृहको किले परस्परं युद्धं चक्रतुः । तत्रैकस्याः क्षतजबिन्दुस्तस्योपरि पपात । ततः किंचित्सुखमवाप । तस्य पूर्वमेव रौद्रपरिणामेन विभङ्गमुत्पन्नम् । तेन मृगावासं परिज्ञाय पुत्रं प्रार्थितवान् अस्मिन्नरण्ये मृगास्तिष्ठन्ति । तेषां रुधिरेण वापिकां पूरय । तत्र जलक्रीडायां सुखं स्यान्नान्यथेति । पितृभक्त्या स तत्र जगाम, तान् धरमाणो मुनिना निवारितः, उक्तं च - ते तातोऽल्पायुर्मृत्वा नरकं यास्यति, वृथा किं पापसंग्रहं करिष्यसि । कुमारोऽवोचत् 1 धर्मके प्रभावसे उत्पन्न हुआ है । इसलिए तुम्हें धर्म करना चाहिये । स्वयम्बुद्धके इस उपदेशको सुनकर दूसरे शून्यवादी मन्त्री बोले कि धर्मीके होनेपर धर्मोंका विचार करना योग्य है । पहिले परलोक से सम्बन्ध रखनेवाला जीव (धर्मी) सिद्ध होना चाहिये । तत्पश्चात् परलोक के सुख-दुखका विचार करना उचित माना जा सकता है । परन्तु जब जीव ही नहीं है तब भला धर्म करने से क्या अभीष्ट सिद्ध होगा ? इसपर स्वयम्बुद्धने प्रथमतः उन लोगों के लिए युक्तिपूर्वक जीवकी सिद्धि की । तत्पश्चात् उसने दृष्टान्तके रूपमें जीवके अस्तित्वको प्रगट करनेवाली एक देखी, सुनी और अनुभवमें आयी हुई कथाको कहते हुए सदस्योंसे उसके सुनने की प्रार्थना की। वह बोला पहिले इस महाबल राजाके वंशमें एक अरविन्द नामका राजा हो गया है। उसकी पत्नीका नाम विजया था । इनके हरिश्चन्द्र और कुरुविन्द नामके दो पुत्र थे । एक समय अरविन्द के लिए दाहज्वर उत्पन्न हुआ। तब उसने हरिश्चन्द्र से प्रार्थना की कि हे पुत्र ! मुझे किसी ठण्डे स्थानमें ले चलो | तब पुत्रने उसके शीतलतारूप कार्यको सम्पन्न करने के लिए जलवर्षिणी विद्याको भेजा । परन्तु वह उसके दाहज्वरको शान्त नहीं कर सकी । इस प्रकार जब वह अरविन्द दुखका अनुभव करता हुआ स्थित था तब वहाँ दो छिपकलियाँ परस्पर लड़ रही थीं। उनमें से एक के क्षत शरीर से रुधिरकी बूँद निकलकर अरविन्दके शरीर के ऊपर जा गिरी। इससे उसे कुछ शान्ति प्राप्त हुई । रौद्र परिणामके कारण उसे विभंगज्ञान पहिले ही उत्पन्न हो चुका था । इससे उसने मृगोंके रहने के स्थानको जान करके पुत्रसे प्रार्थना की कि इस ( अमुक ) वनमें मृग रहते हैं, उनके रुधिरसे तुम एक वापिकाको पूर्ण करो । उसमें जलक्रीड़ा करनेसे मुझे सुख प्राप्त हो सकता है। इसके बा मुझे किसी प्रकारसे सुख नहीं हो सकता है । तब पिताकी भक्ति से वह पुत्र उस वनमें जाकर मृगों को पकड़ने लगा । उसे इससे रोकते हुए मुनि बोले कि तुम्हारे पिता की आयु अतिशय अल्प शेष रही है । वह मरकर नरक जानेवाला है । ऐसी अवस्था में तुम व्यर्थ पापका संग्रह क्यों करते हो ? इसे सुनकर कुमारने कहा कि मेरा पिता बहुत ज्ञानी है, वह भला नरक में क्यों जायगा ? १. फ श्रुतं दृष्ट्वानुभुक्तकथा । २. ब दीर्घज्वरो । ३ ब प्रतिपाठाऽयम् । जपफश क्षतजलबिन्दु | ४. ब ' ततः' नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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