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________________ २२८ पुण्यात्रवकथाकोशम् [५-५, ३८ः संघम् । 'अत्रायं कन्दाद्याहारेण स्थित इति न केनापि प्रतिवन्दितः। संघो गुरोर्निषद्याक्रिया चक्रे उपवासं च । द्वितीया पारणानिमित्तं कमपि ग्रामं गच्छन्नाचार्यः संप्रति-चन्द्रगुप्तेन निवारितः स्वामिन् , पारणां कृत्वा गन्तव्यमिति । समीपे ग्रामादेरभावात् क्व पारणा भविष्यतीति गणी बभाण । सा चिन्ता न कर्तव्येति संप्रति-चन्द्रगुप्त उवाच । ततो मध्याह्ने कौतुकेन संघस्तत्प्रदर्शितमार्गेण चर्यार्थ चचाल । पुरो नगरं लुलोके, विवेश, बहुभिः श्रावकैर्महोत्साहन स्थापिता ऋषयः । सर्वेऽपि नैरन्तर्यानन्तरं गुहामाययुः। कश्चिद् ब्रह्मचारी तत्र कमण्डलु विसस्मार। तामानेतुं डुढौके। तन्नगरं ने लुलोक इति विस्मयं जगाम, गवेषयन् झाड़ें तामपश्यत् । गृहीत्वागत्याचार्यस्य स्वरूपमकथयत् । ततः सूरिः संप्रतिचन्द्रगुप्तस्य पुण्येन तत्तदैव भवतीत्यवगम्य तं प्रशंसयामास । तस्य लोचं कृत्वा प्रायश्चित्तमदत्त, स्वयमप्यसंयतदत्तमाहारं भुक्तवानिति संघेन प्रायश्चित्तं जग्राह ।। इतो दुर्भिक्षापसारे रामिल्लाचार्यस्थूलभद्राचार्यावालोचयामासतुः । स्थूलाचार्योs. तिवृद्धः स्वयमालोचितवांस्तत्संघस्य कम्बलादिकं त्यक्तं न प्रतिभासत इति नालोचयति । बढ़ रहा था, उन्होंने संघके सन्मुख आकर उसकी वंदना की। परन्तु यह यहाँ कन्दमूलादिका आहार करते हुए स्थित रहा है, ऐसा सोचकर संघके किसी भी मुनिने उनकी वंदनाके उत्तरमें प्रतिवंदना नहीं की । उस संघने वहाँ भद्रबाहुके शरीरका अग्निसंस्कार करते हुए उस दिन उपवास रक्खा । दूसरे दिन जब विशाखाचार्य पारणाके निमित्तसे किसी गाँवकी ओर जाने लगे तब संप्रति चन्द्रगुप्तने उन्हें रोकते हुए कहा हे स्वामिन् ! पारणा करने के पश्चात् विहार कीजिए । इसपर विशाखाचार्यने कहा कि जब यहाँ पासमें कोई गाँव आदि नहीं है तब पारणा कहाँपर हो सकती है ? इसके उत्तरमें चन्द्रगुप्तने कहा कि उसकी चिन्ता नहीं कीजिए । तत्पश्चात् मध्याह्नके समयमें चन्द्रगुप्तके द्वारा दिखलाये गये मार्गसे वह संघ आश्चर्य पूर्वक चर्याके लिए निकला। आगे जाते हए उसे एक नगर दिखाई दिया । तब वह उसके भीतर प्रविष्ट हुआ। वहाँ बहुत-से श्रावकोंने उन मुनियोंका बड़े उत्साहके साथ पडिगाहन किया। इस प्रकार वे सब निरन्तराय आहार करके वहाँसे उस गुफामें वापिस आ गये। उस संघका एक ब्रह्मचारी वहाँ कमण्डलु भूल आया था। वह उसे लेनेके लिए फिरसे वहाँ गया । परन्तु उसे वह नगर नहीं दिखा । इससे उसे बहुत आश्चर्य हुआ। फिर उसने उसे खोजते हुए एक झाड़के नीचे देखा । तब वह उसे लेकर वापिस गुफामें आया । उसने उस नगरके उपलब्ध न होनेकी बात गुरुसे कही। इससे विशाखाचार्यने समझ लिया कि वह नगर संप्रति चन्द्रगुप्तके पुण्य के प्रभावसे उसी समय हो जाया करता है । इस घटनाको जानकर विशाखाचार्यने संप्रति चन्द्रगुप्तकी बहुत प्रशंसा की। पश्चात् उन्होंने संप्रति चन्द्रगुप्त मुनिका केशढुंच करके उन्हें प्रायश्चित्त दिया तथा अव्रतीके द्वारा दिये गये आहारको ग्रहण करनेके कारण संघके साथ स्वयं भी प्रायश्चित्त लिया । इधर दुर्भिक्षके समाप्त हो जानेपर रामिल्लाचार्य और स्थूलभद्राचार्यने आलोचना करायी। स्थूलाचार्य चूँकि अतिशय वृद्ध हो चुके थे अतएव उन्होंने स्वयं आलोचना कर ली। उनके संघके १. ब अयमत्र । २. शनिषिद्या । ३. ब 'च' नास्ति । ४. ज प श कथमपि । ५. फ श चन्द्रगुप्तोवाच । ६. श 'न' नास्ति। ७. ब लुलोके । ८. ज व्याटे प श्याटे ब श झाटे ( अस्पष्टम् ) । ९. श किंबलादिकं । १०. ज ब त्यक्तुं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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