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________________ ५. उपवासफलम् ५ ५-५, ३८] २२७ पाटलीपुत्रे ये स्थिता रामिल्लादयस्तत्र महादुर्भिक्षं जातम् , तथापि श्रावका ऋषिभ्योऽतिविशिष्टमन्नं ददति । एकदा चर्या कृत्वागमनावसरे रङ्कः कस्यचिदृषेरुदरं विपाटयोदनो भक्षितः। ऋषेरुपद्रवं वीक्ष्य श्रावकैराचार्या भणिता ऋषयो रात्री पात्राणि गृहीत्वा गृहमागच्छन्तु, तान्यशनेन भृत्वा वयं प्रयच्छामो वसतौ निधाय योग्यकाले द्वारं दत्त्वा गवाक्षप्रकाशेन परस्परं हस्तनिक्षेपणं कृत्वा चर्या कुर्वन्त्विति, तदभ्युपगम्य तथा प्रवर्तमाने सत्येकस्यां रात्रौ दीर्घकायं वेतालाकृति पिच्छकमण्डलुपाणि कुक्कुरादिभयेन गृहीतदण्डं यतिं विलोक्य कस्याश्चिद् गर्भिण्याः भयेन गर्भपातोऽभूत् । तमनर्थ विलोक्योपासकैर्भणितं श्वेतं कम्बलं घटिकास्वरूपं लिङ्ग कटिप्रदेशं च झम्पितं यथा भवति तथा स्कन्धे निक्षिप्य गृहं गच्छन्त्वन्यथानर्थ इति । तदप्यभ्युपगतम् । तथा प्रवर्तमाना अर्धकर्पटितीर्थाभिधा जाताः । एवं ते सुखेन तथैव तस्थुः ।। ___ इतो द्वादशवर्षान्तरं दुर्भितं गतमिदानी विहरिष्याम इति विशाखाचार्याः पुनरुत्तरापथमागच्छन् गुरुनिषद्यावन्दनार्थं तां गुहामवापुः। तावत्तत्रातिष्ठद्यों गुरुपादावाराधयन् संप्रति-चन्द्रगुप्तो मुनिद्वितीयलोचाभावे प्रलम्बमानजटाभारः संघस्य संमुखमाट ववन्दे जाकर वहाँ सुखपूर्वक स्थित हुए। ____ इधर पाटलिपुत्रमें यद्यपि भारी दुर्भिक्ष प्रारम्भ हो गया था तो भी वहाँ रामिल्ल आदि तीन आचार्योंके संघ स्थित थे उनके लिए श्रावक जन विशिष्ट भोजन दे ही रहे थे। एक दिन जब कोई एक मुनि आहार लेकर वापिस आ रहे थे तब कुछ दरिद्र जनोंने उनके पेटको फाड़कर तद्गत अन्नको खा लिया था। इस प्रकार मुनिके ऊपर आये हुए उपद्रवको देख कर कुछ श्रावकोंने उन आचार्योंसे कहा कि हे मुनिजनो ! आप लोग पात्रोंको लेकर हम लोगोंके घरपर रातमें आवें। तब हम लोग उन पात्रोंको भोजनसे भरकर दे दिया करेंगे। आप लोग उनको वसतिकामें ले जावें और फिर वहाँ भोजनके योग्य समयमें द्वारको बंद करके झरोखोंके प्रकाशमें एक दूसरेके हाथमें देकर उस भोजनको ग्रहण कर लिया करें । मुनिजन इसे स्वीकार करके तदनुसार प्रवृत्ति करने लगे। एक दिनकी बात है कि एक साधु, जिसका कि शरीर लम्बा था, एक हाथमें पीछी और कमण्डलुको तथा दूसरे हाथमें कुत्तों आदिके भयसे दण्डको लेकर जा रहा था। उसकी वेताल जैसी आकृतिको देखकर किसी गर्भवती स्त्रीका गर्भपात हो गया । इस अनर्थको देखकर श्रावकोंने कहा कि श्वेत कंबलकी घड़ी करके उसे अपने कन्धेके ऊपर इस प्रकारसे डाल लीजिए कि जिससे लिंग और कटि भाग ढंक जाय। इस प्रकारसे श्रावकके घर जानेपर ऐसा अनर्थ नहीं हो सकेगा, अन्यथा उसकी सम्भावना बनी ही रहेगी। इस बातको भी उन सबने स्वीकार कर लिया। इस प्रकार प्रवृत्ति करनेसे उनका नाम अर्धकपटितीर्थ प्रसिद्ध हो गया। इस प्रकारसे वे वहाँ उसी प्रकार सुखसे स्थित रहे । इधर बारह वर्षके बाद जब वह दुर्भिक्ष नष्ट हो गया तब विशाखाचार्य आदिने दक्षिणसे उत्तरकी ओर फिरसे विहार करने का विचार किया। तदनुसार उत्तरकी ओर आते हुए वे मार्ग में भद्रबाहुकी नसियाकी वंदना करनेके लिए उस गुफामें पहुँचे । तब तक वहाँपर जो संप्रति चन्द्रगुप्त मुनि गुरुके चरणोंकी आराधना करते हुए स्थित थे तथा दूसरी बार केशलुं च न करनेसे जिनका जटाभार १. ब निक्षपणं । २. ज प कमण्डल । ३. व प्रदेशे । ४. ज प श तदभ्युपगतं व तदप्यभ्युपगतां । ५. श निषिद्या। ६. फ शत्तत्र तिष्ठद्यो । ७. ज प जटाभार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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