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________________ : ५-५, ३८] ५. उपवासफलम् ५ २२२ पुनः पुनर्भणन्नाचार्यो रात्रावेकान्ते हतः । स्थूलाचार्यो दिवं गतः इति सर्वैः संभूय 'संस्कारितः। तहषयस्तथैव तस्थुः । तत्रागता विशाखाचार्यादयः प्रतिवन्दना न कुर्वन्तीति तदा तैः केवली भुङ्क्ते, स्त्रीनिर्वाणमस्तीत्यादि विभिन्न मतं कृतम् । तैः पाठितो कस्यचिद्राशः पुत्री स्वामिनी । सा सुराष्ट्रा [] देशे वलभीपुरेशवप्रपादाय दत्ता। सा तस्यातिवल्लभा जाता। तया स्वगुरवस्तत्रानायिताः। तेषामागमने राक्षा सममर्धपथं ययौ। राजा तान् विलोक्योक्तवान्- देवि, त्वदीया गुरवः कीदृशा न परिपूर्ण परिहिता नापि नग्नाः इति । उभयप्रकारयोर्मध्ये कमपि प्रकारं स्वीकुर्वन्तुं चेत्पुरं प्रविशन्तु, नोचेद्यान्त्वित्युक्ते तैः श्वेतः साटको वेष्टितस्ततः स्वामिनीसंशया श्वेतपटा बभूवुः। स्वामिन्याः पुत्री जक्खलदेवी श्वेतपटैः पाठिता। सा करहाटपरेशभपालस्यातिप्रिया जज्ञे। सापि स्वगरून् स्वनिकटमानयामास । तेषामागतो तया राजा विशप्तो मदीया गुरवः समागताः त्वयापथं निर्गन्तव्यमिति । तदुपरोधेन निर्गतो वटतले स्थितान् दण्डकम्बलयुतानालोक्य भूपाल उवाच देवि, त्वदीया गुरवो गोपालवेषधारिणो यापनीया इति । राजा तानवज्ञाय पुरं साधुओंने कंबल आदिको नहीं छोड़ा था, और आलोचना भी नहीं करना चाहते थे । जब स्थूलाचार्यने इसके लिए उनसे अनेक बार कहकर कंबल आदिके छोड़ देनेपर बल दिया तब रात्रिके समय एकान्त स्थानमें उनकी हत्या कर दी गई । इस प्रकारसे मरणको प्राप्त होकर स्थूलाभद्राचार्य स्वर्गमें पहुँचे। तब सबने मिलकर उनका अग्निसंस्कार किया। फिर वे साधु उसी प्रकार कंबल आदिके साथ स्थित रहे। जब वहाँ विशाखाचार्य आदि पहुँचे तब उन्होंने इनके पास कंबल आदिको देखकर उनकी वंदना के उत्तरमें प्रतिवंदना नहीं की। यह देखकर उन सबने 'केवली भोजन किया करते हैं, स्त्रीको भी मोक्ष प्राप्त होता है' इत्यादि प्रकार भिन्न मतको प्रचलित किया । उनने किसी राजाकी पुत्री स्वामिनीको पढ़ाया। वह सुराष्ट्रदेशस्थ वल्लभीपुरके राजा वप्रपादको दी गई थी। वह उसके लिए अतिशय स्नेहकी भाजन हुई। उसने अपने उन गुरुओंको वल्लभीपुरमें बुलाया । तदनुसार उनके वहाँ आ जानेपर वह उनके स्वागतार्थ राजाके साथ आधे मार्ग तक गई। उन सबको देखकर राजाने कहा कि प्रिये ! ये तुम्हारे गुरु कैसे हैं ? वे न तो पूर्णरूपसे वस्त्र ही पहिने हुए हैं और न नग्न भी हैं। ये यदि उक्त दोनों मार्गों में से एक मार्ग स्वीकार कर लेते हैं तब तो पुरके भीतर प्रवेश कर सकते हैं, अन्यथा वापिस जावें। यह कहनेपर उन सबोंने श्वेत वस्त्रको पहिन लिया। तब स्वामिनीकी इच्छानुसार उनका नाम श्वेतपट (श्वेताम्बर) प्रचलित कर दिया गया । स्वामिनीके एक जक्खलदेवी नामकी पुत्री थी। उसको श्वेताम्बरोंने पढ़ाया था । वह करहाटपुरके राजा भूपालकी अतिशय प्यारी पत्नी हुई। उसने भी अपने गुरुओंको अपने पास बुलाया । तदनुसार जब वे वहाँ आ पहुंचे तब उसने राजासे प्रार्थना की कि मेरे गुरु यहाँ आये हुए हैं, आपको आधे मार्ग तक जाकर उनका स्वागत करना चाहिए । तब उसके आग्रहसे राजा उनका स्वागत करनेके लिए नगरसे बाहर निकला। उस समय वे दण्ड और कम्बलको लेकर एक वट-वृक्षके नीचे स्थित थे । उनको ऐसे वेशमें स्थित देखकर राजाने रानीसे कहा कि हे देवि ! ये तुम्हारे गुरु तो ग्वाले जैसे वेषको धारण करनेवाले हैं, अतः यापनीय (हटा देनेके योग्य) हैं। इस प्रकारसे वह १. ब इति संभूय सर्वेः सं । २. प ते पाठिता श तैठिता। ३. ज फ श सुरथदशे प सुरथादेशे । ४. ब स्वीकुर्वन्ति । ५. ज जरकल श जखल । ६. श तदुरोधेन । ७. श कमल । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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