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________________ : १-३] १. पूजाफलम् ३ मृत्वा यक्षो जातोऽसि । पुण्डरीकिण्यां मुनिवृन्ददावाग्निजनितोपसर्ग निवार्यायुरन्ते तनुं त्यक्त्वा पुष्कलावतीविषयस्थविजयार्धवासिवियच्चरराजतंडिल्लङ्घश्रीप्रभयोः पुत्रो मुदितो भूत्वा कौमारे दीक्षितोऽसि । अमरविक्रमवियच्चरेशश्रियमालोक्य कृतनिदानः समाधिना सनत्कुमारस्वर्गेऽमरो भूत्वा आगत्य त्वं जातोऽसि इति श्रुत्वा स्वपुत्राभ्याममरराक्षसभानुराक्षसाभ्यां राज्यं दत्वा मुनिर्भूत्वा मोक्षं गत इति ॥२॥ [३] भेको विवेकविकलोऽप्यजनिष्ट नाके दन्तैर्गृहीतकमलो जिनपूजनाय । गच्छन् सभां गजहतो जिनसन्मतेः स नित्यं ततो हि जिनपं विभुमर्चयामि ॥३॥ अस्य कथा- अत्रैवार्यखण्डे मगधदेशस्थराजगृहनगरेशः श्रेणिकः ऋषिनिवेदकेन विज्ञप्तः- हे देव, वर्धमानस्वामिसमवसरणं विपुलाचले स्थितमिति श्रुत्वानन्देन तत्र गत्वा जिनं पूजयित्वा गणधरप्रभृतियतीनभिवन्ध स्वकोष्ठे उपविष्टो यावद्धर्म शृणोति तावजगअनुमोदना करनेसे उत्पन्न हुए पुण्यके प्रभावसे तुम आयुके अन्तमें मरकर यक्ष उत्पन्न हुए थे। इस पर्यायमें तुमने पुण्डरीकिणी नगरीके भीतर मुनिसमूहके ऊपर वनाग्निसे उत्पन्न हुए उपसर्गको दूर किया था। इससे तुम आयुके अन्तमें शरीरको छोड़कर पुष्कलावती देशके भीतर स्थित विजयाध पर्वतके ऊपर निवास करनेवाले विद्याधरराज तडिल्लंघके मुदित नामक पुत्र उत्पन्न हुए थे। उसकी ( तुम्हारी ) माताका नाम श्रीप्रभा था। उस पर्यायमें तुमने कुमार अवस्थामें ही दीक्षा ले ली थी। तत्पश्चात् तप करते हुए तुमने अमरविक्रम नामक विद्याधर नरेशको विभूतिको देखकर निदान किया था---उसकी प्राप्तिकी इच्छा की थी। इससे तुम समाधिपूर्वक मरणको प्राप्त होकर प्रथम तो सनत्कुमार कल्पमें देव उत्पन्न हुए थे और फिर वहाँसे च्युत होकर तुम (महाराक्षस विद्याधर ) हुए हो। इस पूर्व वृतान्तको सुनकर महाराक्षस अपने अमरराक्षस और भानुराक्षस पुत्रोंको राज्य देकर मुनि हो गया एवं मुक्तिको प्राप्त हुआ ॥२॥ विवेक ( विशेष ज्ञान ) से रहित जो मेंढक जिनपूजाके अभिप्रायसे दाँतोंके मध्यमें कमलपुष्पको दबाकर सन्मति ( वर्धमान ) जिनेन्द्रकी समवसरणसभाको जाता हुआ मार्गमें हाथीके पैरके नीचे पड़कर मर गया था वह स्वर्गमें देव उत्पन्न हुआ था। इसलिए मैं निरन्तर जिनेन्द्र प्रभुकी पूजा करता हूँ ॥३॥ इसकी कथा- इसी आर्यखण्डमें मगध देशके भीतर राजगृह नामका नगर है। किसी समय उसका शासक श्रेणिक नरेश था । एक दिन ऋषिनिवेदकने आकर श्रेणिकसे निवेदन किया कि हे देव ! विपुलाचल पर्वतके ऊपर वर्धमान स्वामीका समवसरण स्थित है। इस बातको सुनकर श्रेणिकने वहाँ जाकर आनन्दसे जिन भगवानकी पूजा की और तत्पश्चात् वह गणधरादि मुनियोंकी वन्दना करके अपने कोठेमें बैठ गया । वह वहाँ बैठकर धर्मश्रवण कर ही रहा था कि इतनेमें एक देव लोकको आश्चर्यान्वित करनेवाली विभूतिके साथ समवसरणमें आकर उपस्थित हुआ। उसकी १. प विजयच्चरराज, फ वियच्चरराजा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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