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________________ पुण्यालयकथाकोशम् [१-२ करः पृष्ट इमे पश्चात्किमित्यानीते इति । तीर्थकदाह- इदानीमुत्पन्ने । केन पुण्यफलेनेति चेच्छृणु । अत्रैव नगरे मालाकारिण्यावेकमातृके कुसुमावतीपुष्पलतासंशे पुष्पकरण्डकवनात् पुष्पाणि गृहीत्वा गृहमागच्छन्त्यौ मार्गस्थजिनालयस्य देहलिकां नित्यमेकैकेन कुसुमेन पूजयन्त्यौ अद्य तत्र वने सर्पदष्टे मृत्वेमे देव्यौ संपन्ने । इति श्रुत्वा सर्वे पूजापरा बभूवुरिति ॥१॥ [२] सम्यक्त्वबोधचरणैः खलु वर्जितो ना स्वर्गादिसौख्यमनुभूय वियश्चरेशः। पूजानुमोदजनिताद् भवति स्म पुण्या नित्यं ततो हि जिनपं विभुमर्चयामि ॥२॥ अस्य वृत्तस्य कथा । तथाहि-लङ्कानगर्या राक्षसकुलोद्भवो महाराक्षसनामा वियञ्चरराजो मनोहरोद्यानं जलक्रीडाथै गतः सरोवरगतकमले मृतं षट्पदमेकमवलोक्य सवैराग्यस्तत्र भ्रमन् कंचन मुनिं दृष्ट्वा पृष्टवान्-हे मुनिनाथ, मम पुण्यातिशयकारणं कथयेति । कथयति स्म यतिः- अत्रैव भरते सुरम्यदेशस्थपोदनेशकनकरथेन जिनपूजा कारितेति । तत्र तदा त्वं देशान्तरी भद्रमिथ्याष्टिः प्रीतिंकरनामा स्थितोऽसि । पूजानुमोदेन जनितपुण्येनायुरन्ते तीर्थकर प्रभुसे पूछा कि इन्हें पीछे क्यों लाया गया है। इसके उत्तरमें तीर्थकरने कहा कि वे इसी समय उत्पन्न हुई हैं। वे किस पुण्यके फलसे उत्पन्न हुई हैं,यह यदि जानना चाहते हो तो उसे मैं कहता हूँ, सुनो। इसी नगरमें कुसुमावती और पुष्पलता नामकी दो मालाकारिणी ( मालीकी कन्यायें ) थीं जो एक ही मातासे उत्पन्न हुई थीं। वे पुष्पकरण्डक वनसे पुष्पोंको ग्रहण करके घर आते समय मार्ग में स्थित जिनभवनकी देहरीकी एक एक पुष्पसे प्रतिदिन पूजा किया करती थीं। आज उस वनमें पहुँचनेपर उन्हें सर्पने काट लिया था, 'इससे मरणको प्राप्त होकर वे ये देवियाँ उत्पन्न हुई हैं । इस वृत्तान्तको सुनकर सब जन पूजामें तत्पर हो गये ॥१॥ __ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रसे रहित मनुष्य पूजाके अनुमोदनसे उत्पन्न हुए पुण्यके प्रभावसे स्वर्गादिके सुखको भोगकर विद्याधर राजा हुआ है। इसलिये मैं निरन्तर जिनेन्द्र प्रभुकी पूजा करता हूँ ॥२॥ इस वृत्तकी कथा इस प्रकार है-लंका नगरीके भीतर राक्षसकुलमें उत्पन्न हुआ एक महाराक्षस नामक विद्याधरोंका राजा था । वह मनोहर उद्यानमें जलक्रीड़ाके लिये गया था। वहाँ उसने सरोवरमें स्थित कमलके भीतर मरे हुए एक अमरको देखा । इससे उसे बड़ा वैराग्य हुआ। उसने वहाँ घूमते हुए किसी मुनिको देखकर पूछा- हे मुनीन्द्र ! मेरे पुण्यके अतिशयका कारण कहिये। मुनिने उसके पुण्यातिशयका कारण इस प्रकार कहा- इसी भरत क्षेत्रके भीतर सुरम्य देशमें स्थित एक पौदन नामका नगर है। उसका स्वामी कनकरथ था। उसने जिनपूजा करायी थी । वहाँ प्रीतिंकर नामसे प्रसिद्ध भद्र मिथ्यादृष्टि तुम देशान्तरसे आकर स्थित थे। उस पूजाकी १. श . मेकेन । २. ब नापूजयतां । ३. श जनिता भवति । ४. फ श ०गतः कमले। ५.५ कथयति यतिः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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