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________________ पुण्यात्रवकथाकोशम् [ १-४ : दाश्चर्यविभूत्या मण्डूकाङ्कितमुकुटध्वजोपेतो देवः समायातः । तं दृष्ट्वा साश्चर्यहृदयः श्रेणिकः पृच्छति स्म गणेशम् - अयं किमिति पश्चादागतः केन पुण्यफलेन देवोऽभूदिति । गणभृदाहअत्रैव राजगृहे श्रेष्ठी नागदत्तः श्रेष्ठिनी भवदत्ता । श्रेष्ठी निजायुरन्ते आर्तेन मृत्वा निजभवनपश्चिमवाप्यां मण्डूको जातो निजश्रेष्टिनीं विलोक्य जातिस्मरो जज्ञे । तन्निकटे यावदागच्छति पलाय गृहं प्रविष्टा । स रटन् सरसि स्थितः । एवं' यदा यदा तां पश्यति तदा तदा सन्मुखमागच्छति तदा तदा सा नश्यति । तयैकदागतोऽवधिबोधः सुव्रतनामा मुनिः पृष्टः कः स भेक इति । मुनिनोक्तं नागदत्तश्रेष्ठीति श्रुत्वा तथा स्वगृहं नीत्वा तदुचितप्रतिपत्त्या धृतः । श्रीवीरनाथवन्दनानिमित्तं त्वया कारिता नन्दभेरी निनादाजिनागमनं ज्ञात्वा स भेको दन्तैः कमलं गृहीत्वा अत्रागच्छन् मार्गे तव गजपादेन हतः स देवोऽभूदिति श्रुत्वा भेकोऽपि पूजानुमोदन देवो जातो मनुजः किं न जायते ॥३॥ ૪ [ ४ ] विप्रस्य देहजचरापि सुरो बभूव पुष्पाञ्जलेर्विधिमवाप्य ततोऽपि चक्री । मुक्तश्च दिव्यतपसो विधिमाविधाय नित्यं ततो हि जिनपं विभुमर्चयामि ||४|| ध्वजा और मुकुटमें मेंढकका चिह्न था । उसको देखकर श्रेणिकके हृदय में बड़ा आश्चर्य हुआ । उसने गणधर से पूछा कि हे भगवन् ! यह देव पीछे क्यों आया है और वह किस पुण्यके फलसे देव हुआ है । गणधर बोले- इसी राजगृह नगर में एक नागदत्त नामका सेठ था । उसकी पत्नीका नाम भवदत्ता था | वह सेठ अपनी आयुके अन्त में आर्त्त ध्यानके साथ मरकर अपने ही भवन के पश्चिम भागमें स्थित बावड़ी में मेंढक उत्पन्न हुआ था । उसे वहाँ अपनी पत्नी को देखकर जातिस्मरण हो गया । वह जब तक उसके समीपमें आता था तब तक वह भागकर घर के भीतर चली जाती थी । वह शब्द करते हुए उस बावड़ी के भीतर स्थित होकर उक्त प्रकारसे जब जब भवदत्ता - को देखता तब तब उसके निकट आता था । परन्तु वह डरकर भाग जाती थी । भवदत्ताने एक समय उपस्थित हुए सुव्रत नामक अवधिज्ञानी मुनिसे पूछा कि वह मेंढक कौन है । मुनिने कहा कि वह नागदत्त सेठ है । यह सुनकर वह उसे अपने घर ले गई। वहां उसने उसे उसके योग्य आदरसत्कार के साथ रक्खा । तुमने जो श्री महावीर जिनेन्द्रकी वन्दना के लिये आनन्दभेरी करायी थी उसके शब्दको सुनकर और उससे जिनेन्द्रके आगमनको जानकर वह मेंढक दाँतोंसे कमलपुष्पकोलेकर यहाँ आ रहा था। वह मार्गमें तुम्हारे हाथी के पैर के नीचे दबकर मरणको प्राप्त होता हुआ यह देव हुआ है। इस वृत्तान्तको सुनकर यह विचार करना चाहिए कि जब पूजा की अनुमोदनासे मेंढक भी देव हो गया तब भला मनुष्य क्या न होगा - वह तो मुक्तिको भी प्राप्त कर सकता है ॥ ३ ॥ पुष्पांजलि की विधिको प्राप्त करके - पुष्पांजलि व्रतका परिपालन करके - भूतपूर्व ब्राह्मणकी पुत्री पहिले देव हुई, फिर चक्रवर्ती हुई, और तत्पश्चात् दिव्य तपका अनुष्ठान करके मुक्तिको भी प्राप्त हुई । इसलिये मैं निरन्तर जिनेन्द्र प्रभुकी पूजा करता हूँ ||४|| तत्रैव स्थितः एवं। २ प ० वरमपि ब ब्वरापि, श ० चरोपि । १. फ सरसि स्थितः स च मण्डूकः ३. श वि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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