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________________ २१८ पुण्यानवकथाकोशम्. [५-४, ३७ शकटालो भूमिगृहे निक्षिप्तः। सरावप्रवेशमात्रद्वारेण स्तोकमोदनं जलं प्रतिदिनं दापयति नरेशः । तमोदनं जलं च दृष्ट्वा शकटालोऽब्रूत कुटुम्बमध्ये यो नन्दवंशं निवेशं कर्तुं शक्नोति स इममोदनं जलं च गृहीयादिति । सर्वैस्त्वमेव शक्तो गृहाणेति सर्वसंमते स एवं भुङ्क्ते पानीयं च पिबति । स एव स्थितोऽन्ये मृताः। इतः पुनः प्रत्यन्तवासिनां बाधायां नन्दः शकटालं सस्मार उक्तवांश्च शकटालवंशे को ऽपि विद्यत इति । कश्चिदाहान्नं जलं च कोऽपि गृह्णाति । ततस्तमाकृष्य परिधानं दत्त्वा उक्तवानरीनुपशान्ति नयेति । स केनाप्युपायेनोपशान्ति निनाय । राशा मन्त्रिपदं गृहाणेत्युक्ते शकटालस्तदुल्लङध्य सत्कारगृहाध्यक्षतां जग्राह । एकदा पुरबाह्यऽटन् दर्भसूची खनन्तं चाणक्यद्विज लुलोके । तदनु तमभिवन्द्योक्तवान् किं करोषि । चाणक्योऽब्रूत विद्धोऽहमनया, ततो निर्मूलमुन्मूल्य शोषयित्वा' दग्ध्वा प्रवाहयिष्यामि। शकटालोऽमन्यत अयं नन्दनाशे समर्थ इति तं प्रार्थयति स्म त्वयाग्रासने प्रतिदिनं भोक्तव्यमिति । तेनाभ्युपगतम् । ततः शकटालो महादरेण तं भोजयति । एकदाऽध्यक्षस्तस्य स्थानचलनं चकार । चाणक्योऽवदत् दे डाली है । यह सुनकर नन्दने क्रोधित होकर शकटालको उसके कुटुम्बके साथ तलघरके भीतर रख दिया। वह उसे वहाँ सकोरा मात्रके जाने योग्य छेदमें से प्रतिदिन थोड़ा-सा भात और जल दिलाने लगा। उस अल्प भोजनको देखकर शकटकाल बोला कि कुटुम्बके बीचमें जो कोई भी नन्दके वंशको समूल नष्ट कर सकता हो वह इस भोजन और जलको ग्रहण करे। इसपर सबने कहा कि इसके लिए तुम ही समर्थ हो। इस प्रकार सबकी सम्मतिसे वह उस अन्न-जलका उपयोग करने लगा। तब एक मात्र वही जीवित रहा, शेष सब मरणको प्राप्त हो गये । इधर उन म्लेच्छोंने जब फिरसे नन्दके राज्यमें उपद्रव प्रारम्भ किया तब उसे शकटालका स्मरण हुआ। उस समय उसने पूछा कि क्या कोई शकटालके वंशमें अभी विद्यमान है । इसपर किसीने उत्तर दिया कि कोई अन्न और जलको ग्रहण तो करता है। तब शकटालको वहाँ से निकाल कर उसे पहिननेके लिए वस्त्र (पोशाक) दिये। फिर नन्दने उससे कहा कि तुम इन शत्रुओंको शान्त करो । इसपर शकटालने जिस किसी भी प्रकारसे उन्हें शान्त कर दिया। तब राजाने उससे पुनः मंत्रीके पदको ग्रहण करनेके लिए कहा । परन्तु शकटालने इसे स्वीकार नहीं किया । तब वह उसकी इच्छानुसार अतिथिगृहका अध्यक्ष बना दिया गया। एक दिन शकटालने नगरके बाहर घूमते हुए चाणक्य ब्राह्मणको देखा । वह उस समय काँसको खोदकर फेक रहा था। शकटालने नमस्कार करते हुए उससे पूछा कि यह आप क्या कर रहे हैं ? चाणक्यने उत्तर दिया कि इस काँसके अग्रभागसे मेरा पाँव विध गया है, इसलिए मैं इसे जड़-मूलसे उखाड़कर सुखाऊँगा और तत्पश्चात् नदीमें प्रवाहित कर दूंगा । इस उत्तरको सुनकर शकटालको विश्वास हुआ कि यह व्यक्ति नन्दके नष्ट करने में समर्थ है । तब उसने उससे प्रार्थना की कि आप प्रतिदिन हमारे अतिथि-गृहमें उच्च आसनपर बैठकर भोजन किया करें । चाणक्यने इसे स्वीकार कर लिया । तबसे शकटाल उसे आदरके साथ भोजन कराने लगा। एक दिन अध्यक्षने उसके स्थानका परिवर्तन कर दिया। इसे देखकर १.ज प सन्मते एव क श सम्मते एव । २. ज तमभिवाद्योक्तवान् ब तमभिवाह्योक्तवान । ३. प ततो निर्मूल्य शोषयित्वा श ततो निर्मूल्य मुन्मूल्य शोषयित्वा । ४. फ श दग्धा। ५. ब मन्यतोऽयं । ६. फ श ऽध्यक्षस्य। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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