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________________ :५-५, ३८] ५. उपवासफलम् ५ २१७ स्वं नगरं गत्वा तत्र पाण्डित्यं प्रकाश्य मातापितरावभ्युपगमय्यागच्छेति विससर्ज । सच गत्वा मातापितरौ प्रणम्य तदनेगुरोर्गुणप्रशंसां चकार । द्वितीयदिने पद्मधरराजस्य भवनद्वारे पत्रमवलम्ब्य द्विजादिवादिनः सर्वान् जिगाय, तत्र जैनमतं प्रकाश्य मातापितरावभ्युपगमय्य गत्वा दोक्षितः । श्रुतकेवलिभूत आचार्य कृत्वा गोवर्धनः संन्यासेन दिवं गतः । भद्रबाहुस्वामी स्वामिभक्तः तपस्वियुक्तो विहरन स्थितः ।। तत्रान्या कथा। तथाहि-पाटलिपुत्रनगरे राजा नन्दो बन्धु -सुबन्धुकाविशकटालाख्यचतुर्भिमन्त्रिभिः राज्यं कुर्वन् तस्थौ। एकदा नन्दस्योपरि प्रत्यन्तवासिनः संभूयागत्य देशसीम्नि तस्थुः । शकटालेन नृपो विज्ञप्तः-प्रत्यन्तवासिनः समागताः, किं क्रियते । नन्दोऽब्रूत त्वमेवात्र दतस्त्वद्भणितं करोमि । शकटालोऽवोचच्छत्रवो बहवो दानेनोपशान्ति नेयाः, युद्धस्यानवसर इति । राज्ञोक्तं त्वत्कृतमेव प्रमाण द्रव्यं प्रयच्छ । ततः शकटालो द्रव्यं दत्त्वा तान् व्याघोटितवान् । अन्यदा राजा भाण्डागारं द्रष्टुमियाय । द्रव्यमपश्यन् क गतं द्रव्यमित्यपृच्छत् । भाण्डागारिकोऽवत शकटालोऽरिभ्योऽइत्त । ततः कुपितेन राज्ञा सकुटुम्बः कर दिया । इस प्रकारसे वह समस्त शास्त्रोंमें पारंगत हो गयो । तत्पश्चात् उसने समस्त दर्शनोंकी सारता व असारताको जानकर गुरुसे दीक्षा देनेकी प्रार्थना की । इसपर गोवर्धन मुनीन्द्रने कहा कि तुम पहिले अपने नगरमें जाकर अपनी विद्वत्ताको दिखलाओ और तत्पश्चात् माता-पिताकी स्वीकारता लेकर आओ। तब तुम्हें हम दीक्षा दे देंगे। यह कहकर उन्होंने भद्रबाहुको अपने घर भेज दिया। तदनुसार भद्रबाहुने जाकर माता-पिताको प्रणाम कर उनके समक्ष अपने गुरुके सद्गुणोंकी खूब प्रशंसा की। पश्चात् दूसरे दिन उसने पद्मधर राजाके भवनके द्वारपर पत्रको लगाकर ब्राह्मणादि सब वादियोंको वादमें जीत लिया। इस प्रकार उसने जैन धर्मकी भारी प्रभावना की। फिर वह माता-पिताकी स्वीकारता लेकर उन गोवर्धन मुनिके पास गया और दीक्षित हो गया। अन्तमें वे गोवर्धन श्रुतकेवली भद्रबाहुको श्रुतकेवलीरूप आचार्य बनाकर संन्यासके साथ स्वर्गवासी हुए। तब वे गुरुभक्त भद्रबाहु स्वामी साधुओंके साथ विहार करते हुए स्थित हुए। यहाँ एक दूसरी कथा है जो इस प्रकार है-किसी समय पाटलिपुत्र नगरमें नन्द नामका राजा राज्य करता था। उसके ये चार मंत्री थे- बन्धु, सुबन्धु, कावि और शकटाल । एक समय कुछ म्लेच्छ देशके निवासी एकत्रित होकर आक्रमण करनेके विचारसे नन्द राजाके देशकी सीमापर आकर स्थित हो गये। तब शकटालने राजासे निवेदन किया कि अपने देशपर आक्रमण करने के लिये म्लेच्छ देशके निवासी यवन उपस्थित हुए हैं, इसके लिये क्या उपाय किया जाय ? यह सुनकर नन्द बोला कि इस विषयमें तुम ही प्रवीण हो, तुम जो कहोगे वही किया जावेगा। तब शकटालने कहा कि शत्रु बहुत हैं, उन्हें धन देकर शान्त करना चाहिये । कारण कि अभी युद्धके लिये उपयुक्त समय नहीं है । इसपर राजाने कहा कि तुम्हारा कहना योग्य ही है, उन्हें द्रव्य देकर शान्त करो। तब शकटालने उन्हें द्रव्य देकर वापिस कर दिया । दूसरे समय राजा अपने खजानेको देखने के लिये गया। वहाँ जब उसे सम्पत्ति नहीं दिखी तब उसने पूछा कि यहाँकी सब सम्पत्ति कहाँ चली गई है ? इसके उत्तरमें कोषाध्यक्षने कहा कि शकटालने उसे शत्रुओंको १. ज फ ब प पद्मधर श पसंधर । २. ब श्रुत केवली भूत्तमा० । ३. ब अत्राअन्या। ४. प फ श दत्तवान् व्योघोटितवान् ज दत्तवान् व्याधुटितवान् । ४. फ श दत्तं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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