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________________ : ५-५, ३८ ] ५. उपवासफलम् ५ २१९ स्थानचलनं किमिति विहितम् । अध्यक्ष उबाच राशो नियमोऽयमग्रासनमन्यस्मै दातव्यमिति। ततो मध्यमासनेऽपिभोक्त लग्नः । ततोऽप्यन्ते उपवेशितः। स तत्रापि भुङ्क्ते,कोपं न करोति । अन्यदा भोक्तुं प्रविशन् चाणक्योऽध्यक्षेण निवारितो राज्ञा तव भोजनं निषिद्धमहं किं करोमि । ततश्चाणक्यः कुपितः पुरान्निःसरन्नवदद्यो नन्दराज्यार्थी स मत्पृष्ठं लगतु । ततश्चन्द्रगुप्ताख्यः क्षत्रियोऽतिनिस्वः किं नष्टमिति लग्नः । स प्रत्यन्तवासिनां मिलित्वोपायेन नन्दं निर्मूलयित्वा चन्द्रगुप्तं राजानं चकार । स राज्यं विधाय स्वापत्यबिन्दुसाराय स्वपदं दत्त्वा चाणक्येन दीक्षितः। चाणक्यभट्टारकस्य इत ऊर्ध्वं भिन्ना कथाराधनायां ज्ञातव्या । बिन्दुसारोऽपि स्वतनयाशोकाय स्वपदं वितीर्य दीक्षितः। अशोकस्यापत्यं कुनालोऽजनि । स बालः पठन् यदा तस्थौ तदाशोकः प्रत्यन्तवासिनां उपरि जगाम । पुरे व्यवस्थितप्रधानान्तिकं राजादेशं प्रास्थापयत् । कथम् । उपाध्यायाय शालिकूरं च मसिं च दत्त्वा कुमारमध्यापयतामिति । स च वाचकेनान्यथा वाचितः । ततः उपाध्यायं शालिकूरं मसिं च भोजयित्वा कुमारस्य लोचने उत्पाटिते । अरीन् जित्वा आगतो नृपः कुमारं वोक्ष्यातिशोकं चकार । दिनान्तरैस्तं चन्द्राननाख्यया कन्यया परिणायितवान् । तदपत्यं संप्रति-चन्द्रगुप्तोऽभूत् । चाणक्यने पूछा कि यह स्थान परिवर्तन क्यों किया गया है ? इसके उत्तरमें अध्यक्षने कहा कि राजाका ऐसा नियम (आदेश) है कि आगेका आसन किसी दूसरेके लिए दिया जाय । तत्पश्चात् चाणक्य मध्यम आसनके ही ऊपर बैठकर भोजन करने लगा। तत्पश्चात् उसे अन्तिम (निकृष्ट) आसनके ऊपर बैठाया गया । तब भी वह क्रोध न करके वहीं बैठकर खाने लगा। इसके पश्चात् दूसरे दिन जब चाणक्य भोजनगृहके भीतर प्रवेश कर रहा था तब अध्यक्षने उसे रोकते हुए कहा कि राजाने आपके भोजनका निषेध किया है, मैं क्या कर सकता हूँ । इससे चाणक्यको अतिशय क्रोध उत्पन्न हुआ। तब उसने नगरसे बाहर निकलते हुए कहा कि जो व्यक्ति नन्दके राज्यको चाहता हो वह मेरे पीछे लग जावे । यह सुनकर चन्द्रगुप्त नामका क्षत्रिय उसके पीछे लग गया। वह अतिशय दरिद्र था। इसीलिए उसने सोचा कि इसका साथ देनेसे मेरी कुछ भी हानि होनेवाली नहीं है । तब चाणक्यने म्लेच्छोंसे मिलकर प्रयत्नपूर्वक नन्दको नष्ट कर दिया और उसके स्थानपर चन्द्रगुप्तको राजा बना दिया। इस प्रकार चन्द्रगुप्तने कुछ समय तक राज्य किया। तत्पश्चात चात् उसने अपने पुत्र चिन्दसारको राज्य देकर चाणक्यके साथ दीक्षा ग्रहण कर ली। आगे चाणक्य भट्टारककी कथा भिन्न है उसे आराधना कथाकोशसे जानना चाहिए। फिर उस बिन्दुसारने भी अपने पुत्र अशोकके लिए राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर ली। अशोकके कुनाल नामका पुत्र उत्पन्न हुआ । जब वह बालक पढ़ रहा था तब अशोक म्लेच्छोंके ऊपर आक्रमण करने के लिए गया था। वहाँ से उसने नगरमें स्थित प्रधान के लिए यह राजाज्ञा भेजी कि उपाध्यायके लिए शालि धानका भात ओर मसि (स्निग्ध पदार्थ) देकर कुमारको शिक्षग दिशाओ। इस लेख को बाँचनेवालेने विपरीत (च मसि दत्त्वा कुमारमन्धापयताम् = भातके साथ भस्म देकर कुमारको अन्धा करा दो) पढ़ा। तदनुसार उपाध्यायके लिए शालि धानका भात और राख खिलाकर कुमारके नेत्रों को निकलवा लिया गया । तत्पश्चात् जब शत्रुओंको जीतकर अशोक वापिस आया और उसने कुमारको अन्धा देखा तो उसे बहुत पश्चात्ताप हुआ। कुछ दिनोंमें उसने कुमारका विवाह चन्द्रानना नामकी कन्याके साथ करा ...१. ब लग्नतु। २. फ शालिकूरमसि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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