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________________ २१६ पुण्यात्रवकथाकोशम् [५-५, ३८ जम्बूस्वामिमोक्षगतेरनन्तरं विष्णु-नन्दिमित्र-अपराजितगोवर्धन-भद्रबाहुनामानः पञ्च श्रुतकेवलिनो भविष्यन्तीति जिनागमसूत्रं चतुर्थः केवली गोवर्धननामानेकसहस्रयतिभिर्विहरंस्तत्रागत्य तं लुलोके । सोऽष्टाङ्गनिमित्तं वेत्ति । तं विलोक्यायं पश्चिमश्रुतकेवली भविष्यतीति बुबुधे | तत्समुदायालोकनात्सर्वे बटुकाः पलायिताः। स आगत्य गोवर्धनं ननाम । मुनिना पृष्टस्त्वं किमाख्यः, कस्य पुत्र इति । सोऽवदत् पुरोहितसोमशर्मणः पुत्रोऽहं भद्रबाहुनामा । पुनर्मुनिनोक्तं मत्समीपेऽध्येष्यसे । तेन ओमिति भणिते तद्धस्तं धृत्वा स एव तत्पितुः गृहं ययौ। तं विलोक्य सोमशर्मासनादुत्थाय संमुखमागत्य मुकुलितकर श्रासनमदादपृच्छच्च स्वामिन् , किमित्यागमनम् । मुनिबंभाण तव पुत्रोऽयं मत्समीपेऽध्येष्ये इत्युक्तवान् । त्वं भणसि चेदध्यापयिष्यामि । द्विजोऽव तायं जैनदर्शनोपकारक एव स्यादित्युत्पन्नमुहूर्तगुणो विद्यते, सोऽन्यथा किं भवेदयं भवद्भ्यो दत्तो यजानन्ति तत्कुर्वन्त्विति तेन समर्पितः । तदा माता यतिपादयोर्लग्नाऽस्य दीक्षा मा प्रयच्छन्तु । मुनिरुवाचाध्याप्य तवान्तिकं प्रस्थापयामीति श्रद्धेहि भगिनि । ततस्तं नीत्वा मुनिसावासादिना श्रावकैः समाधानं कारयित्वा सकलशास्त्राण्यध्यापितवान् । स च सकलदर्शनानां सारासारतां विबुध्य दीक्षां ययाचे । गुरुरवोचत् परन्तु भद्रबाहुने उन्हें एकके ऊपर दूसरे और दूसरेके ऊपर तीसरे, इस क्रमसे तेरह वर्तक रख दिये । जम्बू स्वामीके मोक्ष जाने के पश्चात् विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँच श्रुतकेवली होंगे; यह आगमवचन है। जिस समय उक्त भद्रबाहु आदि बालक खेल रहे थे उस समय वहाँ अनेक सहस्र मुनियोंके साथ विहार करते हए गोवर्धन नामके चौथे श्रुतकेवली आये। वे अष्टांग निमित्त के ज्ञाता थे। उन्होंने भद्रवाहुको देखकर यह निश्चित किया कि यह अन्तिम श्रुतकेवली होगा। उनके इस संघको देखकर वे सब बालक भाग गये, परन्तु भद्रबाहु नहीं भागा। उसने आकर गोवर्धन श्रुतकेवलीको नमस्कार किया। तब उन्होंने उससे पूछा कि तुम्हारा क्या नाम है और तुम किसके पुत्र हो ? उसने उत्तर दिया कि मैं सोमशर्मा ब्राह्मणका पुत्र हूँ व नाम मेरा भद्रबाहु है । तब मुनिने फिरसे पूछा कि तुम मेरे पास पढ़ोगे? उसने कहा कि 'हाँ, पढूँगा'। इसपर वे स्वयं ही उसका हाथ पकड़कर उसके पिताके पास ले गये । उन्हें आते हुए देखकर सोमशर्मा अपने आसनसे उठकर उनके आगे गया। उसने उन्हें हाथ जोड़कर नमस्कार करते हुए आसन दिया और फिर इस प्रकारसे आनेका कारण पूछा । तब मुनिने कहा कि यह तुम्हारा पुत्र मेरे पास पढ़नेके लिए कहता है। यदि तुम्हें यह स्वीकर है तो मैं उसे पढ़ाऊँगा । यह सुनकर सोमशर्मा बोला कि यह जैन सिद्धान्तका उपकार करेगा, यह इसके जन्म मुहूर्तसे सिद्ध है। वह भला असत्य कैसे हो सकता है ? हम इसे आपके लिये देते हैं। आप जैसा उचित समझें, करें । यह कहकर उसने उन गोवर्धन मुनिके लिये भद्रबाहुको समर्पित कर दिया। उस समय भद्रबाहुकी माताने मुनिके पाँवोंमें गिरकर उसने भद्रबाहुको दीक्षा न दे देनेकी प्रार्थना की। तब गोवर्धन मुनिराजने कहा कि हे बहिन ! मैं पढ़ाकर इसे तेरे पास भेज दूंगा, तू इतना विश्वास रख । इस प्रकार गोवर्धन श्रुतकेवली भद्रबाहुको अपने साथ ले गये । फिर उन्होंने उसके भोजन और निवास आदिकी व्यवस्था श्रावकोंसे कराकर उसे पढ़ाना प्रारम्भ १. ब मोक्षगतेऽनंतरं । २. प फ ब विष्णुनंदिअपराजित श विष्णुकुमारनंदिराजित। ३. फ 'असिवासादिना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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