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________________ : ५-५, ३८] ५. उपवासफलम् ५ २१५ रूपं द्वादशापत्यविशिष्टं कुर्वन्ति तच्चरित्रपुस्तकानि च ददतीति । एवं पूतिगन्धो राजपुत्रो दुर्गन्धा वैश्यपुत्री च भोगाकाङ्क्षया नियतकालं प्रोषधं विधायैवंविधौ जातावन्यो भव्यः कर्मक्षयहेतोर्यः करोत्यनियतकालं प्रोषधं स किं न स्यादिति ॥३-४॥ [३८] अभवदमरलोके दीक्षितो वल्भनायानशनजनितपुण्याद्देवकान्तामनोशः । विगतसुकृतवैश्यो नन्दिमित्राभिधान उपवसनमतोऽहं तत्करोमि त्रिशुद्धया ॥५॥ अस्य कथा भद्रबाहुचरित्रेऽन्तर्गता इति तन्निरूप्यते-अत्रैवार्यखण्डे पुण्ड्रवर्धनदेशे कोटिकनगरे राजा पद्मधरो रानी पद्मश्रीः पुरोहितः सोमशर्मा ब्राह्मणी सोमश्रीः। तस्याः पुत्रोऽभूत्तदुत्पत्तिलग्नं विशोध्य सोमशर्मा वसतो ध्वजमुद्भावितवान् मत्पुत्रो जिनदर्शनमान्यो भविष्यतीति । ततस्तं भद्रबाहुनाम्ना वर्धयितुं लग्नः, सप्तवर्षानन्तरं मौजीबन्धनं कृत्वा वेदमध्यापयितुं च । एकदा भद्रबाहुबटुकैः सह नगराद्वंहिएक्रीडार्थ ययौ । तत्र वट्टस्योपरि वधारणे केनचित् द्वौ, केनचित् त्रय उपर्युपरि धृताः। भद्रबाहुना त्रयोदश धृताः । तदवसरे जिनेन्द्रकी प्रतिमाके समीपमें वेदीपर आठ पुत्र और चार पुत्रियोंके साथ अशोक व रोहिणीकी आकृतियोंको कराते हैं तथा उनके चरित्रकी पुस्तकोंको लिखाकर प्रदान करते हैं । इस प्रकार पूतिगन्ध राजपुत्र और दुर्गन्धा वैश्यपुत्री ये दोनों भोगोंकी अभिलाषासे नियत समय तक प्रोषधको करके इस प्रकारकी विभूतिको प्राप्त हुए हैं। फिर भला जो भव्य जीव कर्मक्षयकी अभिलाषासे उक्त व्रतका अनियत समय तक परिपालन करता है वह क्या अनुपम सुखका भोक्ता नहीं होगा ? अवश्य होगा ॥ ३-४ ॥ नन्दिमित्र नामका जो पुण्यहीन वैश्य भोजनके लिए दीक्षित हआ था वह उपवाससे प्राप्त हुए पुण्यके प्रभावसे स्वर्गमें देवांगनाओंका प्रिय ( देव ) हुआ है। इसीलिए मैं मन, वचन और कायकी शुद्धिपूर्वक उस उपवासको करता हूँ ॥ ५ ॥ इसकी कथा भद्रबाहुचरित्रमें आई है। उसका यहाँ निरूपण किया जाता है. इसी आर्यखण्डमें पुण्ड्वर्धन देशके भीतर कोटिक नामका नगर है। वहाँ पद्मधर नामका राजा राज्य करता था। रानीका नाम पद्मश्री था। इस राजाके यहाँ सोमशर्मा नामका एक पुरोहित था । उसकी पत्नीका नाम सोमश्री था । उसके एक पुत्र उत्पन्न हुआ। सोमशर्माने उसके जन्ममुहूर्तको शोधकर ‘मेरा पुत्र जैनोंमें संमान्य होगा' यह प्रगट करनेके लिए जिनमन्दिरके ऊपर ध्वजा खड़ी कर दी थी। उसने उसका नाम भद्रबाहु रक्खा । भद्रबाहु क्रमशः वृद्धिको प्राप्त होने लगा। सोमशर्माने सात वर्षके पश्चात् उसका मौंजीवन्धन ( उपनयन ) संस्कार किया। तत्पश्चात् वह उसे वेदके पढ़ानेमें संलग्न हो गया। एक समय भद्रबाहु बालकोंके साथ गेंद खेलनेके लिये नगरके बाहर गया । वहाँ उन सबने वट्टक ( वर्तक- एक प्रकारका खिलौना ) के ऊपर वट्टक रखनेका निश्चय किया । तदनुसार उनमें से किसीने दो और किसीने तीन वट्टक ऊपर-ऊपर रक्खे । १. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श यैवंतिधा जाता अन्यो। २. ज फ ब श मनोजः। ३. ब भद्रवाहचरिते वर्तत इति । ४. जद्वहिवट ब हिर्बट । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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