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________________ पुण्यानवकथाकोशम् [ ५-४, ३७ : रथस्तस्मै दातुं पद्मावती केनापि तत्रानीता, तयोविवाहविभूत्यतिशयमालोक्य किमस्माकं भिक्षाभोजनानां जीवितेनेति वैराग्येण सीमंधरान्तिके दीक्षिताः समाधिना सौधर्म गताः । पूर्वोक्तपूतिगन्धापितुर्दासोपुत्रो भल्वातकः पिहितास्रवसमीपे जैनो भूत्वावसाने सौधर्म गतः तस्मादागत्य पूर्वोक्ताः सप्त, भल्वातकचरश्च क्रमेण तवाष्टौ पुत्रा जाताः । इदानी पुत्रीणां भवानव पूर्वविदेहविजया दक्षिणश्रेण्यामलकानगरीशमरुदेवकमलश्रियोः पुन्यः पद्मावती पनगन्धा विमलश्री श्रीः] विमलगन्धा चेति चतस्रस्ताभिर्गगनतिलकचैत्यालये समाधिगुप्तमुनिनिकटे श्रीपञ्चम्युपवासो गृहीतस्तदुद्यापनमकृत्वैव विद्युता मृत्वा दिवि देव्यो भूत्वागत्य ते पुत्र्यो जाता इति निशम्याशोकस्तो नत्वा पुरं विवेश । पुत्रीः श्रीपालपुत्रभूपालाय दत्त्वा बहुकालं राज्यं कृत्वा मेघविलयं विलोक्य निर्विण्णो वीतशोकं स्वपदे निधाय श्रीवासुपूज्यतीर्थकरसमवसरणे बहुभिर्दीक्षां बभार गणधरो बभूव । रोहिणी कमलश्रीक्षान्तिकान्ते दीक्षिता विशिष्टं तपोविधायाच्युते देवोजज्ञे। अशोकमुनिनिर्वाणं जगाम । तत्प्रभृत्यत्रत्या भव्या रोहिणीविधानोद्यापने वासुपूज्यप्रतिमापीठेऽशोकरोहिण्योकोई उस पद्मावती पुत्रीको वहाँ ले आया था। इन दोनोंके विवाह के ठाट-वाटको देखकर उक्त शिवशर्मा आदि सातों ब्राह्मण पुत्रोंने विचार किया कि देखो हम लोग भीख माँगकर उदरपूर्ति करते हैं, हमारा जीना व्यर्थ है। इस प्रकार विचार करते हुए उन्हें वैराग्यभाव उत्पन्न हुआ। तब उन सबने सीमन्धर स्वामीके समीपमें दीक्षा ले ली । अन्तमें वे समाधिपूर्वक शरीरको छोड़कर सौधर्म स्वर्गको प्राप्त हुए। पूर्वोक्त पूतिगन्धाके पिताके एक भल्यातक नामका दासीपुत्र था । यह पिहितास्रव मुनिके समीपमें जैन हो गया था। वह मरकर सौधर्म स्वर्गमें देव हुआ था। इस प्रकार पूर्वोक्त सात ब्राह्मणपुत्र और यह भल्वातक ये आठों वहाँसे च्युत होकर क्रमसे तुम्हारे आठ पुत्र हुए हैं। अब अपनी पुत्रियोंके भवोंको सुनो-यहींपर पूर्वविदेहमें स्थित विजया पर्वतकी दक्षिण श्रेणीमें अलका पुरी है वहँपर मरुदेव राजा राज्य करता था । रानीका नाम कमलश्री था। इनके पद्मावती, पद्मगन्धा, विमलश्री और विमलगन्धा नामकी चार पुत्रियाँ थीं। उन चारोंने गगनतिलक चैत्यालयमें समाधिगुप्त मुनिके पासमें पञ्चमीके उपवासको ग्रहण किया था। किन्तु वे नियमित समय तक उसका पालन और उद्यापन नहीं कर सकीं। कारण यह कि उन चारोंकी मृत्यु अकस्मात् बिजलीके गिरनेसे हो गई थी। फिर भी वे उस प्रकारसे मरकर स्वर्गमें देवियाँ हुई और तत्पश्चात् वहाँसे च्युत होकर वे तुम्हारी पुत्रियाँ हुई हैं। इस प्रकार अपने सब प्रश्नों के उत्तरको सुनकर वह अशोक उन दोनों मुनियोंको नमस्कार करके नगरमें वापिस आ गया। उसने इन पुत्रियोंको श्रीपालके पुत्र भूपालके लिए देकर बहुत समय तक राज्य किया । एक समय वह विखरते हुए मेघको देखकर भागोंसे विरक्त हो गया। तब उसने अपने पदपर वीतशोक पुत्र को प्रतिष्ठित करके श्री वासुपूज्य जिनेन्द्रके समवसरणमें बहुतोंके साथ दीक्षा ले ली। वह वासुपूज्य तीर्थंकरका गणधर हुआ। रोहिणीने कमलश्री आर्यिकाके पास दीक्षित होकर बहुत तप किया । अन्तमें वह शरीरको छोड़कर अच्युत स्वर्गमें देव हुई। अशोक मुनि मुक्तिको प्राप्त हुए । उसी समयसे लेकर यहाके भव्य जीव रोहिणीव्रतविधिके उद्यापनके समय वासुपूज्य १. फ 'केनापि' नास्ति । २. [भवान् शृणु । अत्रैव] | ३. फ विदेहे । ४. ब-प्रतिपाठोऽयम् । शत्यत्रतभव्या । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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