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________________ २०६ पुण्यास्त्रवकथाकोशम् [ ५-४, ३७ : गुण लोके । कोऽयं मुनिमृतेति [ मुनिर्मृत इति ] पप्रच्छ । कश्चिदाह-मासोपवासपारणायां सागरमुने: सिन्धुमत्या अश्वार्थ कृतं कटुकं तुम्बं दत्तम् स मृत इति । तदनु श्रेष्ठी दीक्षितः । राजा कर्णनासिकाछेदं कृत्वा गर्दभमारोप्य तां निःसारयामास । सा कुण्ठिनी कुथितशरीरा मृत्वा षष्ठनरके गता । नरकादागत्यारण्ये शुनी जाता, दावाग्निना ममार, तृतीयनरकं गता । ततः कौशाम्ब्यां शकरी बभूव । श्रजीर्णेन मृत्वा कोशलदेशे नन्दिग्रामे मूषिकाऽजनि । तृषायां मृत्वा जलूका वभूव । जलं पातु प्रविष्टा [ष्ट] महिषीशरीरे लग्ना । आकृष्टरुधिरभारेण धर्मे पतिता काकैर्भक्षिता मृता उज्जयिन्यां चण्डाली जज्ञे, जीर्णज्वरेण ममाराहिच्छत्रनगरे रकगृहे रासभी व्यजनि । ततोऽपि मृत्वाऽत्र हस्तिनापुरे ब्राह्मणगृहे कपिला गौर्जाता कर्दमे मग्ना मृतात्वं जाताऽसीति निशम्य दुर्गन्धा पुनः पृच्छति स्म -- - हे नाथ, दुर्गन्धगमनोपायं कथय । [स] कथयति स्म - - हे पुत्र, सप्तविंशतिमे दिने रोहिगीनक्षत्रमागच्छति । तस्मिन्नुपवासः कर्तव्यः । तदुपवासक्रमः - कृत्तिकायां स्नात्वा जिनमभ्यच्यैकभक्तं ग्राह्यम् । भुक्वात्मादि (?) साक्षिक उपवासो ग्राह्यः । स च मार्गशीपेमासे प्रारम्भणीयंस्तद्दिने जिनाभि s उसने किसी से पूछा कि ये कौन-से मुनि मरणको प्राप्त हुए हैं ? यह सुनकर किसीने कहा कि एक मासका उपवास पूर्ण करके गुणसागर मुनि पारणा के लिए गये थे । उन्हें सिन्धुमतीने घोड़े के लिये तैयारकी गई कडुबी तूंबड़ी दे दी। इससे उनका स्वर्गवास हो गया है। इस घटना से दीक्षा धारण कर ली । उधर राजाने सिन्धुमतीके कान और नाक कटवा लिये तथा उसे गधेके ऊपर चढ़ाकर नगरसे बाहिर निकलवा दिया। तत्पश्चात् सिन्धुमतीको कोढ़ निकल आया । इससे उसका शरीर दुर्गन्धमय हो गया । वह मरकर छठे नरक में पहुँची । वहाँ से निकलकर वह वनमें कुत्ती हुई और वनाग्निसे जलकर मर गई । फिर वह तृतीय नरकको प्राप्त हुई । वहाँ से निकलकर वह कौशाम्बी नगरी में शूकरी हुई। तलश्चात् अजीर्णसे मरकर वह कोशल देशके अन्तर्गत नन्दिग्राम में चुहिया हुई । इस पर्याय में वह प्यास से पीड़ित होकर मरी और जलूका (गों व ) हुई । वहाँ उसने जल पीनेके लिए आयी हुई भैंसके शरीर में लगकर उसका रक्तपान किया । उस रक्तके बोझसे धूपमें गिर जानेपर उसे कौओंने खा लिया । तब वह मरकर उज्जयिनी पुरीमें चाण्डालिनी हुई। फिर वह जीर्ण ज्वरसे मरकर अहिछत्र नगर में धोबीके घरपर गधी हुई। तत्पश्चात् मरणको प्राप्त होकर वह यहाँ हस्तिनापुरमें एक ब्राह्मणके घरपर कपिला गाय उत्पन्न हुई । वह कीचड़ में फँसकर मरो और फिर तू हुई है । इस प्रकार अपने पूर्व भवों की परं पराको सुनकर दुर्गन्धाने उनसे फिर पूछा कि हे नाथ ! मेरे इस शरीर की दुर्गन्धके नष्ट होने का क्या उपाय है ? इसपर मुनिने कहा कि हे पुत्री ! सत्ताईसवें दिन रोहिणी नक्षत्र आता है । उस दिन . उपवास कर। इस उपवासका क्रम इस प्रकार है— कृत्तिका नक्षत्र के समय में स्नान करके जिन भगवान् की पूजा करनी चाहिये । तत्पश्चात् एकाशनकी प्रतिज्ञा लेकर भोजन करे और स्वयं या अन्य किसीके साक्षीमें उपवासका नियम ले ले । इस उपवासको मार्गशीर्ष माससे प्रारम्भ करना Jain Education International १. व कोयं मृतेपि पप्रच्छ । २ व प्रतिपाटोज्यम् । शमुनिः । दवाग्निना । ५. द्वितीय । ६. शजका ७ स्खलितो जातः । ९ व प्रारंभनीय ३. ज व अरण्यशुनी । ४. ब सप्तविंशतिदिनं । ८ श अतोऽग्रे 'ग्राह्यः पर्यन्तः पाठः For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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