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________________ : ५-४, ३७ ] ५. उपवासफलम् ३-४ २०७ घेकादिकं कृत्वा धर्मध्यानेनैव स्थातव्यम्, पारणा है' जिनपूजनादिकं विधाय यथाशक्ति पात्रदानं च, तदनु पारणा कर्तव्या । स च रोहिणीविधानविधिरुत्कृष्टो मध्यमो जघन्यश्चेति त्रिविधः । सप्त वर्षाणि यो विधीयते स उत्कृष्ट, पञ्च वर्षाणि मध्यमः, त्रीणि वर्षाणि जघन्यः । तदुद्यापनक्रमः कथ्यते - तस्मिन्नेव मासे रोहिणीनक्षत्रे जिनप्रतिमां कारयित्वा प्रतिष्ठाप्य पञ्चपञ्चसंख्यकं वृतादिकलशैर्जिनाभिषेकं कृत्वा पञ्चतण्डुलपुञ्जः पञ्चप्रकारपुष्पैः पञ्चभाजनस्थनैवेद्यः पञ्चदीपैः पञ्चाङ्गधूपैः पञ्चप्रकारफलैर्जिनं पूजयित्वा पञ्चसंख्यासंख्याकोपकरणैः समेताः प्रतिमा वसतये देयाः, पञ्चाचार्येभ्यः पञ्च पुस्तकानि यथाशक्ति साधूनां पूजार्जिकाभ्यो वस्त्राणि श्रावकश्राविकाभ्यः परिधानं च देयम्, शक्त्यनुसारेणाभयघोषणान्नदानादिना प्रभावना कार्या, तद्दिवसे वसतो पञ्चवर्ण तण्डुलैरर्धतृतीयौ द्वीपो विलिख्य पूजतोयाविति । यस्योद्यापने शक्तिर्नास्ति स द्विगुणं प्रोषधं कुर्यात् । एतत्फलेनेहापि सुखं लभेरन् भव्या इति निशम्य पूतिगन्धा एतद्विधानं जग्राह । पुनस्तं पृच्छति स्म पूतिगन्धा -- मद्विधः कोऽपि संसारे दुर्गन्धदेहो जातो नो वा । मुनिराह - कलिङ्गदेशे महाटव्यां गजो ताम्रकर्णश्वेतकर्णौ करिणीनिमित्तं युद्ध्वा मृतौ मूषकचाहिये । उस दिन जिन भगवान्‌का अभिषेक व पूजनादि करके धर्मध्यानमें कालयापन करना चाहिये । फिर पारणाके दिन जिनपूजनादिके साथ पात्रदान करके तत्पश्चात् पारणा करे । वह रोहिणी व्रत की विधि उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन प्रकारकी है। उनमें उक्त व्रतका सात वर्ष तक पालन करनेपर वह उत्कृष्ट, पाँच वर्ष तक पालन करनेपर मध्यम और तीन वर्ष तक पालनेपर जघन्य होता है । अब उसके उद्यापनकी विधि बतलाते हैं- उसी मार्गशीर्ष माह में रोहिणी नक्षत्र के होनेपर जिनप्रतिमाका निर्माण कराकर उसकी प्रतिष्ठा कराना चाहिये । तत्पश्चात् पाँच पाँच संख्या में घी आदि कलशोंसे जिन भगवान्का अभिषेक करके पाँच अक्षतपुंजों, पाँच प्रकार के पुष्पों, पाँच पात्रों में स्थित नैवेद्यों, पाँच द्वीपों, पंचांग धूपों और पाँच प्रकारके फलोंसे जिनपूजन करना चाहिये । साथ ही पाँच उपकरणों सहित प्रतिमाओंको वसतिका के लिए देना चाहिये । इसके अतिरिक्त पाँच आचार्योंके लिए पाँच पुस्तकोंको, यथाशक्ति साधुओं को पूजा (अर्ध ), आर्यिकाओंके लिए वस्त्र और श्रावक-श्राविकाओंके लिए परिधान ( धोती आदि पहिरनेके वस्त्र ) को भी देना चाहिये । अन्तमें जैसी जिसकी शक्ति हो तदनुसार अभयकी घोषणा करके आहारदानादिके द्वारा धर्मप्रभावना भी करना चाहिये । उस दिन जिनालय में पाँच वर्णके चावलोंसे अढ़ाई द्वीपोंकी रचना करके पूजन करना चाहिये। जो व्रती उद्यापन करने में असमर्थ हो उसे उक्त व्रतका पालन नियमित समयसे दुगुणे काल तक करना चाहिये । इस व्रत के फलसे भव्यं जीव परलोक में तो सुख प्राप्त करते ही हैं, साथमें वे उसके फलसे इस लोक में भी सुख पाते । इस प्रकार रोहिणी व्रत के विधानको सुनकर पूतिगन्धाने उसे ग्रहण कर लिया । पश्चात् पूतिगन्धाने उनसे पुनः प्रश्न किया कि इस संसार में मेरे समान दूसरा भी कोई ऐसे दुर्गन्धयुक्त शरीरसे सहित हुआ है अथवा नहीं ? मुनि बोले - कलिंग देशके भीतर एक महावन में ताम्रकर्ण और श्वेतकर्ण नामके दो हाथी थे । वे हथिनी के निमित्तसे परस्पर १. पारणा । २. श विधाय' नास्ति । ३ श प्रतिमा । ४. व प्रतिपाटोऽयम् । श जिनपूजनं पूजयित्वा । ५. व वस्त्राणि श्रावकाभ्यः परि । ६. पफश लभेत् । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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