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________________ : ५-४, ३७ ] ५. उपवासफलम् ३-४ २०५ भिगन्धेति पुलविकारः कश्चिदेवंविध इत्येतद्धस्ते स्थितौ दोषो नास्तीति स्वं निर्विचि - कित्सा गुणं प्रकाशयन्ती सा तस्थौ । सा तस्या नैरन्तर्य चकार । तदनु सा तां प्रार्थयति स्म अर्ज, मां मा त्यज, त्वत्प्रसादात्सुखिती भवामीति । ततः सा तत्कृपया तत्रैव तस्थौ । एकदा तत्पुरोद्यानं पिहितास्रवमुनिराजगाम । वनपालकात्तदागमनमवगम्य राजादयो वन्दितुं निःस्रुर्वन्दित्वा धर्ममाकर्ण्य पुरं प्रविविशुः । दुर्गन्धापि तयार्जिकया गत्वा ववन्दे । तदनु पप्रच्छ केन पापेनाहमेवंविधा जातेति । मुनिराह - सुराष्ट्रदेशे गिरिनगरे राजा भूपालो देवी सुरूपवती श्रेष्ठी गङ्गदत्तो भार्या सिन्धुमती । एकदा वसन्ते उद्यानं गच्छता राज्ञा गङ्गदत्त आहूतः । स गृहात्सवनितो निःसरन् चर्यार्थ संमुखमागच्छन्तं गुणसागर मुनिं ददर्श स्थापितवांश्च । राजभयाद्वानितां वभाण हे प्रिये, मुनिं चर्या कारयेति । सा पतिभयान्न किमप्युवाच । तस्य परिवेषणार्थ तस्थौ । श्रेष्ठो गतः । सा मम जलक्रीडाविघ्नकरोऽयमस्य ' जानामीति वाजिनिमित्तं मेलितं कटुकं तुम्बमदत्त । स तद् गृहीत्वा वसतिकां ययौ । तत्र महति दाघे समुत्पन्ने संन्यासेन मृत्वाच्युतं जगाम । राजा पुरं प्रविशंस्तद्विमानं निर्गच्छल्लु दुर्गन्धमय शरीरसे संयुक्त है । इसके शरीर सम्बन्धी पुद्गलका कुछ विकार ही इस प्रकारका है । इस कारण इसके हाथसे आहार ग्रहण करनेमें कोई दोष नहीं है । इस प्रकारका विचार करके वे आर्यिका निर्विचिकित्सा गुणको प्रगट करती हुई वहाँ स्थित हो गई । तब दुर्गन्धाने उन्हें निरन्तराय आहार दिया । तत्पश्चात् उसने उनसे प्रार्थना की कि हे आर्थिके ! मुझे न छोड़िये, आपके प्रसादसे मैं सुखी होऊँगी । इसपर वे उसके ऊपर दयालु होकर वहींपर ठहर गईं । एक समय उस नगर के उद्यानमें पिहितास्रव मुनि आये । वनपालसे उनके आगमन के समाचारको जान करके राजा आदि उनकी वन्दना के लिए निकले। उनकी वन्दना के पश्चात् वे धर्मश्रवण करके नगर में वापिस आये । संयमश्री आर्थिक के साथ जाकर दुर्गन्धाने भी उनकी वन्दना की । तत्पश्चात् उसने उनसे पूछा कि मैं किस पापके फलसे इस प्रकारकी हुई हूँ। मुनि बोले -- सुराष्ट्र देशके भीतर गिरिनगर है । वहाँ भूपाल नामका राजा राज्य करता था । रानीका नाम सुरूपवती । था इसी नगर में एक गंगदत्त नामका सेठ रहता था । उसकी पत्नीका नाम सिन्धुमती था । एक बार वसन्त ऋतुके समयमें उद्यानको जाते हुए राजाने गंगदत्त को बुलाया । वह पत्नीके साथ घरमेंसे निकल ही रहा था कि इतने में उसे चर्या के लिए सम्मुख आते हुए गुणसागर मुनि दिखायी दिये । तब उसने उनका पडिगाहन किया और राजाके भयसे अपनी पत्नीसे कहा कि, हे प्रिये ! तुम मुनिको आहार करा दो। इसपर वह पतिके भयसे कुछ भी नहीं बोली और मुनिको परोसने के लिए ठहर गई । सेठ राजाके साथ उद्यानको चला गया। इधर सिन्धुमतीने 'यह मुनि मेरी जलक्रीड़ा में बाधक हुआ है, मैं इसे देखती हूँ' इस प्रकार सोचकर घोड़े के लिए मँगायी गयी कड़वी बड़ी मुनिके लिए दे दी। मुनि उक्त तूंबड़ीका भोजन करके वसतिकाको चले गये। इससे उनके शरीर में अतिशय दाह उत्पन्न हुई । तब उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया । अन्तमें संन्यासपूर्वक शरीरको छोड़कर वे अच्युत स्वर्गको प्राप्त हुए । उधर उद्यानसे वापिस आकर नगर के भीतर प्रवेश करते हुए राजाने उनके विमानको निकलते हुए देखा । तत्र १. व विघ्नकरो अस्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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