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________________ २०४ पुण्यास्रवकथाकोशम् [ ५-४, ३७: स मिल्लः सप्तमदिने उत्पन्नोदुम्बरकुष्ठेन कुथितशरीरो मृत्वा सप्तमावनि जगाम । ततो निर्गत्य प्रसस्थावरादिषु भ्रमित्वाऽत्र पुरै गोपालाम्बरगान्धार्योस्तनुजो दण्डकोऽभूत । स परिभ्रमन नीलाचलं गतस्तत्र दावाग्निना मृतः । तच्छुद्धिं प्राप्य तद्वान्धवाः संभूय रुदन्तस्तत्रागुरिति जनानां शोककारणम् ।। - इदानी रोहिण्याः शोकाभावकारणं कथ्यते- अत्रैव हस्तिनापुरे पूर्व वसुपालो नाम राजाभूद्राशी वसुमती श्रेष्ठी धनमित्रो भार्या धनमित्रा तनुजातिदुर्गन्धा दुर्गन्धाभिधा । तां न कोऽपि परिणयति । अपरो वणिक सुमित्रो वनिता वसुकान्ता पुत्रः श्रीषणः सप्तव्यसनाभिभूतः । एकदा चोरिकायां चण्डपासकैः धृतो राजवचनेन शूले प्रवणार्थ नीयमानो धनमित्रेण दृष्ट्वा भणितो मत्पुत्री परिणेष्यसि चेत् मोचयामि त्वाम् । स वभाण म्रिये, न परिणेप्यामि । तदा वन्धुजनाग्रहेण तत्परिणयनमभ्युपगतं तेन । श्रेष्ठिना भूपं विज्ञाप्य मोचितस्तां परिणीय तदुर्गन्धं सोदुमशक्तो रात्रौ पलाय्य गतः। मातापितृभ्यां तस्या भणितं पुत्रि, त्वं धर्म कुर्विति । भिक्षाभाजोऽपि तद्धस्ते स्वर्णादिकमपि नेच्छन्ति । एकदा संयमश्रीः क्षान्तिका चर्यामार्गेण तद्गृहमागता । सा तां' स्थापयामास । इयं व्याधिता न भवति, सहजदुरकोढ़ उत्पन्न हो गया। इससे उसके समस्त शरीरमेंसे दुर्गन्ध आने लगी। तब वह मरणको प्राप्त होकर सातवें नरक गया। फिर वह वहाँसे निकलकर अनेक त्रस-स्थावर योनियोंमें परिभ्रमण करता हुआ इसी पुरमें ग्वाला अम्बर और गान्धारीक दण्डक पुत्र हुआ था। वह घूमता हुआ नीलाचल पर्वतके ऊपर गया और वहाँ वनाग्निके मध्यमें पड़कर मर गया। तब उसकी खबर पाकर कुटुम्बी जन एकत्रित होकर रोते हुए वहाँ गये। यह उनके शोकका कारण है। अब मैं रोहिणीके शोक न होनेके कारणको बतलाता हूँ- इसी हस्तिनापुरमें पहिले एक वसुपाल नामका राजा राज्य करता था। उसकी पत्नीका नाम वसुमती था। वहींपर एक धनमित्र नामका सेठ रहता था। उसकी स्त्रीका नाम धनमित्रा था। इनके अतिशय दुर्गन्धित शरीरवाली एक दुर्गन्धा नामकी पुत्री थी। उसके साथ कोई भी विवाह करनेके लिए उद्यत नहीं होता था। वहींपर एक सुमित्र नामका दूसरा सेठ रहता था। उसकी पत्नीका नाम वसुकान्ता था। इनके एक श्रीषेण नामका पुत्र था जो सात व्यसनोंमें रत था । एक समय वह चोरी करते हुए कोतवालों के द्वारा पकड़ लिया गया था। वे उसे राजाज्ञाके अनुसार शूलीपर चढ़ाने के लिए ले जा रहे थे। मार्गमें धनमित्रने देखकर उससे कहां कि यदि तुम मेरी पुत्रीके साथ विवाह कर लेते हो तो मैं तुम्हें छुड़ा देता हूँ। इसपर उसने उत्तर दिया कि मैं मर जाऊँगा, परन्तु आपकी पुत्रीके साथ विवाह नहीं करूँगा। किन्तु तत्पश्चात् बन्धुजनोंके आग्रहसे श्रीपेणने धनमित्रकी पुत्रीके साथ विवाह करना स्वीकार कर लिया। तब सेठने राजासे प्रार्थना करके उसे मुक्त करा दिया। इसके पश्चात् उसने दुर्गन्धाके साथ विवाह तो कर लिया, परन्तु वह उसके शरीरकी दुर्गन्ध को न सह सकनेके कारण रातमें वहाँ से भाग गया। तब माता पिताने दुर्गन्धासे कहा कि हे पुत्री! तू धर्मका आचरण कर। उसके शरीरसे इतनी अधिक दुर्गन्ध आती थी कि जिससे अन्यकी तो बात ही क्या, किन्तु भिखारी तक उसके हाथसे सोना आदि भी लेना पसन्द नहीं करते थे। एक दिन उसके घरपर चर्यामार्गसे संयमश्री नामकी आर्यिका आई। दुर्गन्धाने उनका पडिगाहन किया। उस समय आर्थिकाने विचार किया कि यह रुग्ण नहीं है, किन्तु स्वभावतः १. फ कुथितशरीरे । २. श गोपुरे । ३. ५ चण्डिपासिकै तो ब चण्डपासकैतो श चण्डिपासकैतो। ४. श मागत्य । ५. ब 'ता' नास्ति । ६. ज व्याधिता न चेति भवति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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