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________________ : ५-४, ३७ ] ५. उपवासफलम् ३-४ २०३ न जानासि । तयोक्तम् 'न'। 'तदार्यभावं विलोक्य पण्डितावोचत् पुत्रि, कश्चिदेतेषां मृत इत्येते शोकं कुर्वन्तीति । तदानीमेव लोकपालकुमारः प्रमादेन प्रासादाद्भूमौ पतितस्तदा सर्वेऽपि शोक चक्रर्मातापितरो तूष्णीं तस्थतुः। तदा नगरदेवतया स बालोऽन्तराले हंसतल्पेन धृतः । तदर्शनेन जनानन्दो ऽभून्मातापित्रोश्च । द्वितीयदिने तन्नगरोद्याने रूप्यकुम्भस्वर्णकुम्भौ मुनी आगतौ'। वनपालकाद्विवुध्यानन्दभेरीरवपुरःसरं राजा सपरिवारो वन्दितुं निःससार । समय॑ वन्दित्वा धर्मश्रुतेरनन्तरं नरेशः पृच्छति स्म 'अस्मिन्नगर अतीतदिने जनानां शोकः किमभूद्रोहिणी देवी शोक किं न जानाति, केन पुण्येनाहं जातः, तथा मदपत्यातीतभवाश्च के' इति । तत्र रूप्यकुम्भः प्राह शोककारणम् -- एतन्नगरस्य पूर्वस्यां दिशि द्वादशयोजनेषु गतेषु नीलाचलो नाम गिरिरस्ति । तच्छिलाया उपरि पूर्व यमधरमुनिरातापनेन तस्थौ । तन्माहात्म्येन तत्रत्यभिल्लस्य मृगमारेः पापद्धिर्न मिलतीति स भिल्लस्तं द्वेष्टि । एकदा स मासोपवासपारणायां तत्समीपस्थामभयपुरी चर्यार्थ ययौ । तदा तेनातापनशिला खदिराङ्गारैर्धमिता । तदागमं विलोक्य ते नाङ्गारा अपसारितास्तथाविधां तां विलोक्य मुनिगृहीतप्रतिज्ञ इति संन्यासमादायारुरोह । तदुपसर्गे समुत्पन्न केवलस्तदैव मुक्तिमुपजगाम । ही नहीं जानती है ? रोहिणीने उत्तर दिया कि नहीं। तब उसकी सरलताको देखकर पण्डिताने कहा कि हे पुत्री ! इनका कोई मर गया है, इसलिए ये शोक कर रहे हैं। उसी समय लोकपाल कुमार असावधानीके कारण छतपरसे नीचे गिर गया । तब सब लोग पश्चात्ताप करने लगे। परन्तु माता और पिता दोनों ही चुपचाप बैठे रहे । उस समय नगरदेवताने उस लोकपालको बीचमें ही कोमल शय्याके ऊपर ले लिया था। यह देखकर लोगोंको तथा माता-पिताको भी बहुत आनन्द हुआ। दूसरे दिन उस नगरके उद्यानमें रूप्यकुम्भ और स्वर्णकुम्भ नामके दो मुनि आये। वनपालसे इस शुभ समाचारको जानकर राजाने आनन्दभेरी दिला दी। वह स्वयं परिवारके साथ उनकी वन्दनाके लिए निकल पड़ा। उद्यानमें पहुँचकर उसने उनकी पूजा और वन्दना की । तत्पश्चात् धर्मश्रवण करके उसने उनसे निम्न प्रश्न किये -- पिछले दिन इस नगरके जनोंको शोक क्यों हुआ, रोहिणी रानी शोकको क्यों नहीं जानती है, और मैं किस पुण्यके फलसे उत्पन्न हुआ हूँ। साथ ही उसने अपने पुत्रोंके अतीत भवोंके कहने की भी उनसे प्रार्थना की । तब रूप्यकुम्भ मुनिने प्रथमतः लोगोंके शोकका कारण इस प्रकार बतलाया--- इस नगरकी पूर्व दिशामें बारह योजन जाकर नीलाचल नामका पर्वत है। पूर्वमें उस पर्वतकी एक शिलाके ऊपर यमधर मुनि आतापनयोगसे स्थित थे। उनके प्रभावसे वहाँ रहनेवाले मृगमारि नामक भीलको शिकार नहीं मिल रही थी। इससे मृगमारिको उनके ऊपर क्रोध आ रहा था। एक दिन यमधर मुनि एक मासके उपवासके बाद पारणाके लिए उक्त पर्वतके समीपमें स्थित अभयपुरीमें गये थे। उस समय अवसर पाकर उस भीलने उस आतापनशिलाको खैर आदिके अंगारोंसे संतप्त कर दी। फिर उसने मुनिराजको वापिस आते हुए देखकर शिलाके ऊपरसे उन अंगारोंको हटा दिया । मुनिराजने उस शिलाके ऊपर आतापनयोगकी प्रतिज्ञा ले रक्खी थी। इसलिए वे उसे संतप्त देखकर सन्यासको ग्रहण करते हुए उसके ऊपर चढ़ गये। इस भयानक उपसर्गको जीतनेसे उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया और वे तत्काल मुक्त हो गये । उधर उस भीलको सातवें दिन उदुम्बर १. ज प फ श तत्तदायभावं [ तदृजुभावं ] २. श तदिदानीमेव । ३. ज जनानादो” । ४. ज फ ब श द्यानं । ५. श आगती मुनि । ६. ब भवांश्च इति ज प फ श भवाश्च [भवाश्च के इति । ७. प रौप्यकुंभप्राह श रोप्य कुम्भः प्राह । ८. व पूर्व म यम । ९. ब "द्विन्निमिलतीति श० दि स मिलतीति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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