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________________ : ५-२, ३५] ५ उपवासफलम् २ १६३ इतो भविष्यदत्तो मुद्रिकादिकमानीय तामपश्यन् मूच्छितो महता कष्टेनोन्मूञ्छितो भूत्वा वस्तुस्वरूपं भावयन् राजभवन एव तस्थौ। मासद्वयानन्तरं पुनरच्युतेन्द्रेण मन्मित्रं कथं तिष्ठतीति चिन्तितम् । तदवस्थां विबुध्य तदनु स माणिभद्रदेवं तत्र प्रस्थापयामास 'भविष्यदत्तं तन्मातृगृहं नय' इति । ततस्तेन दिव्यविमानमध्यारोप्य विचित्ररत्नादिभिः रात्रौ नीत्वा हरिबलगृहद्वारे व्यवस्थापितः। स च मातामहादीनां संतोषमुत्पाद्य भविष्यानुरूपा वार्तामपृच्छत् । कमलश्रिया स्वरूपे निरूपिते प्रातर्मुद्रिकां तस्या दर्शयेति मातरं तदन्तिकं प्रस्थाप्य स्वयं राजभवनं ययौ, राशस्तवृत्तान्तमचीकथत् । राजा तमपवरकान्तं निधाय धनपतिम् , बन्धुदत्तेन गतवणिजो बन्धुदत्तमप्याहूय पृष्टवान् भविष्यदत्तशुद्धिम् । बन्धुदत्तोऽकथयत् बहुधान्यखेटे प्रभावतीगृहे तिष्ठति । सहगतवणिग्भिर्यथावत्कथिते धनपतिरवत एते बन्धुदत्तं न सहन्ते, एतद्वचनं न प्रमाणमिति । ततो राजा भविष्यदत्त, आगच्छेत्युक्तवान् । तदाऽपवरकान्निर्गत्य राजानं पितरं च ननामोपविवेश, सभान्तराले यथावद्वत्तमचीकथञ्च । तदनु नरेशो धनपति बन्धुदत्तं च कारायां चिक्षेप, भविष्यदत्तो मोचयति स्म । राजा भविप्यानुरूपां मुद्रिकादर्शनेन पतेरागमनं विबुध्य पुलकितशरीरां स्पष्टालापां स्वभवनमानीय तया इधर भविष्यदत्त मुद्रिका आदिको लेकर जब वहाँ आया तो वह भविष्यानुरूपाको न देखकर महान् दुखसे मूर्छित हो गया। फिर जिस किसी प्रकारसे सचेत होनेपर वह वस्तुस्थितिका विचार करता हुआ उस राजभवनमें ही स्थित हो गया । तब दो मासके पश्चात् उस अच्युतेन्द्रने 'वह मेरा मित्र किस प्रकारसे अवस्थित है' इस प्रकार अपने मित्रके विषयमें फिरसे विचार किया। उसकी पूर्वोक्त अवस्थाको जानकर अच्युतेन्द्रने वहाँ माणिभद्र देवको भेजते हुए उसे भविष्यदत्तको उसकी माताके घर ले जानेका आदेश दिया। तदनुसार वह देव उसे रात्रिके समय दिव्य विमानमें बैठाकर अनेक प्रकारके रत्नादिकोंके साथ ले गया और हरिबलके द्वारपर पहुँचा आया । वहाँ पहुचकर भविष्यदत्तने अपने नाना आदिको सन्तुष्ट करके भविष्यानुरूपाकी बात पूछी। तब अपनी माता कमलश्रीसे वस्तुस्थितिको जानकर उसने उसे अंगूठी देते हुए कहा कि इसे प्रातः कालमें भविष्यानुरूपाके पास ले जाकर उसको दिखलाओ। साथ ही उसने स्वयं राजभवन में जाकर भविष्यानुरूपाके उक्त वृत्तान्तको राजासे कहा । इसपर राजाने उसे एक कोठरीके भीतर रखकर धनपति, बन्धुदत्तके साथ द्वीपान्तरको गये हुए वैश्यों और स्वयं बन्धुदत्तको भी बुलाकर उनसे भविष्यदत्तके सम्बन्धमें पूछ-ताछ की। तब बन्धुदत्तने कहा कि वह बहुधान्यखेटमें प्रभावती वेश्याके घर में है। तत्पश्चात् जब बन्धुदत्तके साथ गये हुए उन वैश्योंने राजासे यथार्थ वृतान्त कहा तब धनपति सेठ बोला कि ये लोग बन्धुदत्तके साथ ईर्ष्या करते हैं, इसलिए इनका वचन प्रमाण नहीं है । यह सुनकर राजाने उस भविष्यदत्तसे कहा कि हे भविष्यदत्त ! अब तुम बाहिर आ जाओ। तव भविष्यदत्त कोठरीसे बाहिर आया और राजा एवं पिताको प्रणाम कर वहाँ बैठ गया। तत्पश्चात् उसने सभाके मध्यमें उस समस्त घटनाको यथार्थरूपमें कह दिया। इससे राजाने धनपति सेठ और बन्धुदत्त इन दोनोंको ही कारागारमें रख दिया। परन्तु भविष्यदत्तने उन्हें उससे मुक्त करा दिया। उधर भविप्यानुरूपाने जब कमलश्रीके पास उस अंगूठीको देखा तब भविप्यदत्तके आगमनको जानकर उसका शरीर रोमांचित हो गया। तब वह स्पष्ट-भाषिणी हो १. फ 'तत्र' नास्ति । २. श रत्नाभिः । ३. फ कारागारायां । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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