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________________ १९४ पुण्यात्रकथाकोशम् [ ५-२३५ : स्वपुत्र्या सुरूपया च परिणाय्यार्धराज्यमदत्त । ततो भविष्यदत्तो राजा ताभ्यां भोगाननुभवन् पित्रादीनां भक्तिं कुर्वन् सुखेन तस्थौ । एकदा भविष्यानुरूपा देवी गर्भसंभूतौ दोहलके हरिपुरचन्द्रप्रभजिनालयदर्शनमभिललाष । भर्तुर्न निरूपयति संक्लेशभयात्स्वयं तदप्राप्त्या कृशा बभूव । तदा कश्चिद्विद्याधरः समागत्य तां ननाम, अवदत् - एहि, हरिपुरचन्द्रप्रभनाथजिनालयं द्रष्टुमिति । तदा भूपाल भविष्यदत्त-भविष्यानुरूपादयो भव्यास्तत्र जग्मुः । अष्टदिनानि तत्प्रभृतितत्रत्यजिनालयानां पूजां विधाय स्वपुरागमनावसरे तत्र गगनगतिनाम - चारणोऽवतीर्णः । सर्वे ववन्दिरे । ततो भविष्यदत्तः पृच्छति स्म - - हे मुने, अकस्मादयं भविष्यानुरूपां नत्वात्र किमित्यानीतवानिति । मुनिराह - त्रैार्यखण्डे पल्लवदेशे काम्पिल्ले राजा महानन्दो देवी प्रियमित्रा मन्त्री वासवो भार्या केशिनी पुत्रौ वङ्कसुवङ्कौ पुत्री अग्निमित्रा । सा अग्निमित्रनामपुरोहिताय दत्ता । तं पुरोहितं प्राभृतेन समं कस्यचिद्भ पस्य निकटे प्रस्थापयति स्म राजा । स च बहूनि दिनानि नागच्छतीति सचिन्तो नृपस्तत्रैकदागतं सुदर्शनमुनिं पप्रच्छाग्निमित्रः कि नागच्छति । गई। राजाने उसे राजभवन में बुलाकर उसके साथ तथा अपनी पुत्री सुरूपाके साथ भी भविष्यदत्तका विवाह कर दिया। साथ ही उसने भविष्यदत्त के लिए अपना आधा राज्य भी दे दिया । तत्पश्चात् राजा होकर वह भविष्यदत्त अपनी दोनों पत्नियों के साथ सुखानुभवन करता हुआ सुखपूर्वक रहने लगा । वह पिता आदि गुरुजनोंका निरन्तर भक्त रहा । कुछ समय के पश्चात् भविष्यानुरूपाके गर्भाधान होनेपर उसे दोहल के रूपमें हरिपुर में स्थित चन्द्रप्रभ जिनालयके दर्शन की इच्छा उत्पन्न हुई । परन्तु उसने पतिको संक्लेश होनेके भयसे उससे अपनी इच्छा नहीं प्रगट की । उक्त इच्छाकी पूर्ति न हो सकनेसे वह स्वयं कृश होने लगी । उस समय किसी विद्याधरने आकर उसे नमस्कार करते हुए कहा कि हरिपुरस्थ चन्द्रप्रभजिनालयका दर्शन करनेके लिए चलो । तब भूपाल राजा, भविष्यदत्त और भविष्यानुरूपा आदि भव्य जीव उक्त जिनालयका दर्शन करने के लिए हरिपुर गये । वहाँ उन सभीने आठ दिन तक उस चन्द्रप्रभ जिनालयको आदि लेकर वहाँ के सब ही जिनालयों की पूजा की। पश्चात् जब वे अपने नगरको वापिस आने लगे तब आकाश मार्गसे एक गगनगति नामक चारण मुनि नीचे आये । उनकी सबने बन्दना की । पश्चात् भविष्यदत्तने पूछा कि हे साधो ! यह विद्याधर अकस्मात् भविष्यानुरूपाको नमस्कार करके यहाँ क्यों आया है ? मुनि बोले इसी आर्यखण्ड में पल्लव देशके भीतर काम्पिल्ल नगर में महानन्द नामका राजा राज्य करता था । उसकी पत्नीका नाम प्रियमित्रा था । उसके वासव नामका मन्त्री था । मन्त्रीकी पत्नीका नाम केशिनी था । इनके वंक और सुवंक नामके दो पुत्र तथा अग्निमित्रा नामकी एक पुत्री थी । मन्त्रीने उसका विवाह अग्निमित्र नामक पुरोहित के साथ कर दिया था । एक समय इस पुरोहितको राजाने कुछ उपहार के साथ किसी राजा के पास भेजा । उसके जानेके पश्चात् बहुत दिन बीत गये थे, परन्तु वह वापिस नहीं आया था । इससे राजाको बहुत हुई । एक समय वहाँ सुदर्शन मुनिका शुभागमन हुआ । तब राजा I १. ज प ब श० भोगानुभवन् । २. ज तत्रामितगतिगगनगतिनामाचारणौऽवतीर्णी फ ब तत्रामितगतिगगनगतिनामा चारणौ अवतीर्ण श तत्रामितगतिगगनगतिनामा चारणोऽवतीर्णा । ३. ज 'मुनिराह' एतस्य स्थाने अस्य कथा ||' एवंविधोऽस्ति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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