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________________ : ५-२, ३५] ५. उपवासफलम् २ १८७ कृतः सुखेन स्थितः । एकदा चर्यामार्गेणागतं श्रीधरमुनि स्थापयित्वा नैरन्तर्यानन्तरं पृष्टवान् धनपतिः 'मत्प्रियायाः पुत्रः स्यान्न वा' इति । सोऽवोचत्' अतिपुण्यवान् पुत्रो भविष्यति' इति । तदनु संतुष्टा सा कतिपयदिनैः पुत्रं लेभे । तदुत्पत्तौ राजादिभिरुत्साहश्चके । स च भविष्यदत्त. नामा सकलकलाकुशलो भूत्वा ववृधे । एकदा निर्दोषापि जन्मान्तरार्जितकर्मवशात्सा कमलश्रीः श्रेष्ठिना स्वगृहानिःसारिता। सा हरिबल-लक्ष्मीमत्याख्ययोः स्वपित्रोहे तस्थौ । तत्रैव वैश्यवरदत्त-मनोहयोः सुतां सुरूपां ववार धनपतिः। सा बन्धुदत्ताख्यसुतं लेभे । स च पितुः प्रियः सर्वकलाधारो युवा बभूव । पित्रा तस्य विवाहे क्रियमाणे स उक्तवान् स्वोपार्जितद्रव्येण विवाहं करिष्यामि, नान्यथेति प्रतिशया पञ्चशतवणिग्नन्दनीपान्तरं चचाल। तद्गमनं विबुध्य भविष्यदत्तो मातरं पप्रच्छ बन्धुदत्तेन सह द्वीपान्तरं यास्यामि । सा बभाण सापत्नेननो चितम् । तथापि गच्छामीत्युक्ते भाण्डाभावे कथं गमिष्यसि । पितुः पार्श्व याचित्वा गृहीत्वा यास्यामीति पितुनिकटे ययाचे। पिता बभाणाहं न जाने, ते भ्राता जानाति । तदनु तन्निकटं जगाम । तेन मायया प्रणम्यावादि हे भ्रातः, किमित्यागतोऽसि । यापन कर रहा था । एक समय धनपति सेठके घरपर चर्यामार्गसे श्रीधर मुनि पधारे। तब उसने उनका पडगाहन करके निरन्तराय आहार दिया। तत्पश्चात् उसने उनसे प्रश्न किया कि मेरी पत्नीके पुत्र होगा अथवा नहीं ? उत्तरमें मुनिने कहा कि हाँ, उसके अतिशय पुण्यशाली पुत्र उत्पन्न होगा। यह सुनकर कमलश्रीको बहुत सन्तोष हुआ। तदनुसार उसे कुछ दिनों में पुत्रकी प्राप्ति हुई भी। सेठके यहाँ पुत्रका जन्म होनेपर राजादिकोंने उत्साह प्रगट किया-उत्सव मनाया। उसका नाम भविष्यदत्त रखा गया। वह समस्त कलाओंमें कुशल होकर वृद्धिको प्राप्त हुआ। ___एक समय सेठने निर्दोष होनेपर भी उस कमलश्रीको घरसे निकाल दिया। तब वह जन्मान्तरमें उपार्जित कर्मके फलको भोगती हुई अपने हरिवल और लक्ष्मीमती नामक माता-पिताके घरपर रही । वहींपर एक वरदत्त नामका सेठ रहता था। उसकी पत्नीका नाम मनोहरी था । इनके एक सुरूपा नामकी पुत्री थी। उसके साथ धनपति सेठने अपना विवाह कर लिया था । उसके एक वन्धुदत्त नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। पिताके लिए अतिशय प्यारा वह पुत्र समस्त कलाओं में प्रवीण होकर जवान हो गया। तब पिता उसका विवाह करनेके लिए उद्यत हुआ । परन्तु उसने कहा कि मैं अपने कमाये हुए धनसे विवाह करूंगा, अन्यथा नहीं; यह प्रतिज्ञा करके वह पाँच सौ वैश्यपुत्रोंके साथ दूसरे द्वीपको जानेकी तैयारी करने लगा। उसके द्वीपान्तर जानेके समाचारको जानकर भविष्यदत्तने अपनी माँ से कहा कि मैं बन्धुदत्तके साथ द्वीपान्तरको जाऊँगा । यह सुनकर कमलश्रीने कहा कि वह तुम्हारा सौतेला भाई है, इसलिए उसके साथ जाना योग्य नहीं है। इसपर भविष्यदत्तने उससे कहा कि सौतेला भाई होनेपर भी मैं उसके साथ द्वीपान्तरको जाऊँगा । तब कमलश्रीने पूछा कि पूँजीके बिना तू कैसे द्वीपान्तरको जावेगा ? इसपर भविष्यदत्तने उत्तर दिया कि मैं पिताके पाससे द्रव्य माँगकर जाऊँगा। तदनुसार उसने पिताके पास जाकर उससे द्रव्यकी याचना की । परन्तु पिताने यह कह दिया कि मैं नहीं जानता हूँ, तेरा भाई ( बन्धुदत्त ) जाने । तत्पश्चात् वह बन्धुदत्तके पासमें गया । उसने कपटपूर्वक नमस्कार करते हुए भविष्यदत्तसे पूछा कि हे भ्रात ! तुम किस कारणसे यहाँ आये हो ? उसने उत्तर दिया कि मैं १. ५ मत्प्रियाया। २. फ युवा च बभूव । ३. फ सापत्नो। ४. श 'गहीत्वा' नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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