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________________ १८८ पुण्यास्रवकथाकोशम् [ ५-२, ३५ : भविष्यदत्तोऽवदत्त्वया सह द्वीपान्तरं यास्यामि', किंचिद्भाण्डं देहि । बन्धुदत्त उवाच ममापि त्वं स्वामी किं नु द्रव्यस्य, यावदिष्टं तावद्गृहाणेति भाण्डमदत्त । ततः सुमुहूर्ते बन्धुदत्तेन सह चचाल । मार्गे एकस्मिन् अरण्ये शिबिरं विमुच्य स्थितः सार्थः । अर्धरात्रौ भिल्लैरागत्य शिबिरे गृह्यमाणे बन्धुदत्तादयः सर्वेऽपि पलायिताः । भविष्यदत्तो युयुधे, जिगाय लब्धप्रशंसो बभूव । ततो बहुधान्यखेटवेलापत्तनं जगाम सार्थः । तत्र प्रभावत्यभिधाप्रसिद्धा वेश्या । तस्या ग्रहणं दत्त्वा भविष्यदत्तस्तद्गृहे तस्थौ । बन्धुदत्तो मौल्येन गृहीतवहित्रेषु भाण्डं निक्षिप्य वहित्रप्रेरणावसरे भविष्यदत्तमाह्वाप्य वहित्रमारोप्य तानि प्रेरयामास । दिनान्तरैस्तिलकद्वीपमवाप। तत्र जलकाष्ठसंग्रहार्थं जलयानपात्राणि स्थिरीचकार । तत्र कैश्चिद् रन्धितं प्रारब्धं कैश्चिजलादिकं वहिने निक्षिप्तं यदा तदा भविष्यदत्तोऽटव्यामटन् सरो ददश। तत्र सस्नो जिनं स्तुतवान् तस्थौ। इतः काष्ठादिकं संगृह्य भुक्त्वा च जलयानप्रेरणावसरे वणिभिरुक्तं भविष्यदत्तो न दृश्यत इति । तदा बन्धुदत्तो मनसि जहर्ष, बभाषे चात्र सिंहादिभयमस्ति, यापयन्तु वहित्राणि । यापितेषु भविष्यदत्त आगत्य तानपश्यन् मातृवचनं स्मृत्वैकत्वादिकं भावयन्नटव्यां यावदटति तावद्वटतरोरधोऽधोगतां सोपानपङक्ति लुलोके । तुम्हारे साथ द्वीपान्तरको चलना चाहता हूँ, इसके लिए तुम मुझे कुछ द्रव्य दो । इसपर बन्धुदत्तने कहा कि तुम मेरे भी स्वामी हो, फिर भला द्रव्यकी क्या बात है ? जितना द्रव्य तुम्हें अभीष्ट हो ले लो । यह कहकर उसने भविप्यदत्तको धन दे दिया। तत्पश्चात् वह शुभ मुहूर्तमें बन्धुदत्तके साथ चला गया । वह व्यापारियोंका समूह मार्गमें एक वनके भीतर तम्बू डालकर ठहर गया । तब वहाँ आधी रातमें कुछ भीलोंने आकर उसपर आक्रमण कर दिया। इससे भयभीत होकर बन्धुदत्त आदि सब ही भाग गये । परन्तु भविष्यदत्तने उनके साथ युद्ध करके उन सबको जीत लिया। इससे उसकी खूब प्रशंसा हुई। तत्पश्चात् वह व्यापारियोंका संघ वहुधान्यखेट वेलापत्तनको गया। वहाँ एक प्रमावती नामकी प्रसिद्ध वेश्या थी। भविष्यदत्त भाड़ा देकर उसके घरपर ठहर गया। इधर बन्धुदत्तने मूल्य देकर कुछ नावोंको खरीदा और उनमें द्रव्यको रक्खा। तत्पश्चात् उसने नावोंको खोलते समय भविष्यदत्तको बुलवाकर उसे नावके ऊपर बैठाया और तब उन्हें चला दिया। कुछ दिनों में वह संघ तिलक द्वीपमें पहुँचा। वहाँपर जल और ईंधनका सग्रह करनेके लिए उन नावोंको रोक दिया गया। तब किन्हीं पुरुषोंने भोजन बनाना प्रारम्भ किया तो कितने ही नावोंमें जलादिको रखने लगे। जब इधर यह कार्य चल रहा था तब भविष्यदत्तने वनमें घूमते हुए वहाँ एक सरोवरको देखा । उसमें स्नान करके वह जिन भगवान्की स्तुति करता हुआ वहाँ ठहर गया। इधर इन्धनादिका संग्रह और भोजन करके जब नावोंके छोड़नेका अवसर हुआ तब वैश्योंने कहा कि भविष्यदत्त नहीं दिखता है । यह जान करके बम्धुदत्तको मनमें बहुत हर्ष हुआ। वह बोला कि यहाँ सिंहादिकोंका भय है, अतएव नावोंको चलने दो। नावोंके चले जानेपर जब भविष्यदत्त वहाँ आया तब वह नावोंको न देखकर माताके उस वचनकी याद करने लगा। तत्पश्चात् वह एकत्वादि भावनाओंका विचार करता हुआ उस वनमें कुछ आगे गया । वहाँ उसे एक वट १. ज फ श द्वोपान्तरमायास्यामि। २. ज प व श 'तु' । ३. श आरण्ये । ४. फ श 'सार्थः' नास्ति । ५. फ मारोप्य प्रे० ब मारोपितानि । ६. ज भविष्यदत्तो मटन् । ७. फ स्तुवन् । ८. श तान् पश्यन् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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