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________________ १८६ पुण्यास्रवकथाकोशम् [५-१, ३४ : सहितानि ( ? ) सहस्रवर्षाण्यायुः । सहस्रभटादिमुनयः सौधर्मादिसर्वार्थसिद्धिपर्यन्तं जग्मुः, लक्ष्मीमत्यादयोऽच्युतान्तं गताः। एवं वैश्यात्मज एकेनैवोपवासेनैवंविधोऽजनि, यस्त्रिशुद्धया सततं करोति स किं न स्यादिति ॥१॥ [३५] अनुमननभवाद्वै पुण्यतो यस्य जातः सकलगुणगणेभ्यश्चोपवासस्य पूज्यः । क्षितिपविभवनाथो वैश्यभाविष्यदत्त उपवसनमतोऽहं तत्करोमि त्रिशुद्ध या॥२॥ अस्य कथा। अत्रैवार्यखण्डे कुरुजाङ्गलदेशे हस्तिनापुरे राजा भूपालो देवी प्रियमित्रा । तत्रैव वैश्यो धनपतिः भार्या कमलश्रीः। सा एकदा स्वभवनस्योपरिमभूमावुपविश्य दिशमवलोकयन्ती सद्यःप्रसूतां गामतिस्नेहेन वत्सस्य पृष्ठे गच्छन्तीं विलोक्य पुत्रवाञ्छया दुःखिनी बभूव । पतिर्दुःखकारणं पप्रच्छ । तया निरूपितं पुत्राभाव इति । 'धनपतिर्धर्मेणेष्टार्थसिद्धिभविष्यति इति पुरादहिः रम्यप्रदेशे जिनभवनानि कारयामास । तानि राजा विलोक्य केन कारितानीति कंचन पृष्टवान् । तेन 'धनपतिना' इति निरूपिते तुष्टेन राशा धनपती राजश्रेष्ठी (६६) वर्ष प्रमाण था ] इस प्रकार उसकी आयु एक हजार वर्ष प्रमाण थी। सहस्रभट आदि मुनि सौधर्म स्वर्गको आदि लेकर सवार्थसिद्धि तक गये। लक्ष्मीमती आदि अच्युत स्वर्ग पर्यन्त गई। इस प्रकार वह वैश्यका पुत्र ( नागदत्त ) एक ही उपवाससे इस प्रकारके वैभवको प्राप्त हुआ है । फिर जो मन वचन व कायकी शुद्धिपूर्वक निरन्तर ही उस उपवासको करता है वह क्या वैसे वैभवको नहीं प्राप्त करेगा ? अवश्य प्राप्त करेगा ॥१॥ भविष्यदत्त वैश्य जिस उपवासकी अनुमोदनासे उत्पन्न हुए पुण्यके प्रभावसे राजवैभवसे संयुक्त होकर समस्त गुणी जनोंसे पूज्य हुआ है मैं उस उपवासको मन, वचन और कायकी शुद्धिपूर्वक करता हूँ ॥२॥ इसकी कथा इस प्रकार है-- इसी आर्यखण्डके भीतर कुरुजांगल देशके अन्तर्गत एक हस्तिनापुर नगर है। वहाँ भूपाल नामका राजा राज्य करता था। रानीका नाम प्रियमित्रा था। उसी नगरमें धनपति नामका एक वैश्य रहता था। उसकी पत्नीका नाम कमलश्री था । वह किसी समय अपने भवनकी छतके ऊपर बैठी हुई दिशाओंका अवलोकन कर रही थी। उस समय उसे एक गाय दिखी जो कि उसी समय प्रसूत होकर अतिशय स्नेहसे अपने बछड़ेके पीछे जा रही थी। उसे देखकर वह पुत्रहीना पुत्रप्राप्तिकी इच्छासे बहुत दुखी हुई। उसको दुखी देखकर पतिने उसके दुखका कारण पूछा। उसने इसका कारण पुत्रका अभाव बतलाया । तब धनपतिने धर्मसे अभीष्ट प्रयोजन सिद्ध होगा, यह निश्चय करके नगरके बाहिर एक रमणीय प्रदेशमें जिन भवनोंका निर्माण कराया। उन जिनालयोंको देखकर राजाने किसीसे पूछा कि इन जिनभवनोंका निर्माण किसने कराया है ? उससे जब राजाको यह ज्ञात हुआ कि ये धनपति सेठके द्वारा निर्मापित कराये गये हैं तब इससे उसे बहुत सन्तोष हुआ। इससे उसने धनपतिको राजसेठ नियत कर दिया। इस प्रकारसे वह सेठ सुखपूर्वक काल १. प 'सप्ततिवर्षसहितानि' इत्येतत्पदम् निष्कास्य तस्थाने माजिने 'कुमारकाल ७० राज्यकाल ८०० तपकाल ६४ केवली ६६ एवं सर्ववर्ष १०००' एतावान् सन्दर्भो लिखितः। २. ब गुणगणेशश्चोप० । ३. ज प श तत्र । ४. फ श धनातिधर्मेणेष्टार्थ ब धनपतिधर्मेण इष्टार्थ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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