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________________ : ५-१, ३४] ५. उपवासफलम् १ १८५ दात्ममुखं दर्पणे पश्यन् पलितमालोक्य प्रतापंधराय राज्यं वितीर्य बहुभिः पिहितास्रवमुनिनिकटे दीक्षितः, पृथ्वी श्रीमत्यार्यिकाभ्यासे । जयंधरः मुनिमुक्तिं ययौ । पृथ्वी अच्युते देवोऽ भूत् । इतो जायंधरियालायाधराज्यं दत्त्वा' अच्छेद्योभेद्ययोर्देशान् कोशलाभीरमालवान् महाव्यालाय गोडवैदर्भदेशौ सहस्रभटेभ्यो[ भ्यः ] पूर्वदेशमन्येभ्योऽपि यथोचितदेशान् ददी। नागकुमारो महामण्डलेश्वरविभूतियुक्तोऽभूत् । अष्टसहस्रान्तःपुरमध्ये लक्ष्मीमती धरणिसुन्दरी त्रिभुवनरती गुणवती चेति चतस्रो महादेव्यः । लक्ष्मीमत्या देवकुमाराख्यो नन्दनोऽजनि । सोऽपि पितृवन्महाप्रतापी। अन्येऽपि कुमारा बहवो अजनिषत । एवं नागकुमारोऽष्टशतवर्षाणि राज्यं कुर्वन् सुखेन तस्थौ। एकदा मेघविलयं दृष्ट्वा वैराग्यमुपजगाम । देवकुमाराय राज्यं दत्त्वा व्यालादिकोटीभटैः सहस्रभटैर्मुकुटबद्धमण्डलेश्वरादिभिरमलमतिकेवलिपार्श्वे दीक्षां बभार । लक्ष्मीमत्यादिस्त्रीसमूहः पद्मश्रीक्षान्तिकाभ्यासे दीक्षितः। प्रतापंधरो मुनिश्चतुःषष्टिवर्षाणि तपश्चकार । कैलाशे स केवली जझे, तथा व्यालमहाव्यालाच्छेद्याभेद्याश्च, षटषष्टिवर्षाणि विहृत्य तत्रैव मुक्तिमापुः [प]। व्यालादयोऽपि । एवं नागकुमारस्य नेमिजिनान्तरे समुत्पन्नस्य कुमारकालः सप्ततिवर्ष [वर्षाणि ७० राज्यकालोऽष्टशतानि वर्षाणि ८०० तपःकालश्चतुःषष्टिवर्षाणि ६४ केवलकालः षट्षष्टिवर्षाणि ६६ एवं ] दिन दर्पणमें मुखावलोकन करते हुए जयंधरको शिरपर श्वेत बाल दिखा। इससे उसे भोगोंकी ओरसे विरक्ति उत्पन्न हुई। तब उसने प्रतापंधरको राज्य देकर बहुत जनोंके साथ पिहितास्रव मुनिके निकटमें दीक्षा ग्रहण कर ली। पृथ्वी रानीने भी श्रीमती आर्यिकाके पास दीक्षा ग्रहण कर ली । वह जयंधर राजा मोक्ष को प्राप्त हुआ तथा पृथ्वी अच्युत स्वर्गमें देव हुई। इधर नागकुमारने व्यालके लिए आधा राज्य देकर अच्छेद्य व अभेद्यके लिए कोशल, आभीर और मालव देशों को; महाव्यालके लिए गौड़ और वैदर्भ देशोंको; सहस्रभटोंके लिए पूर्व देशको, तथा अन्य जनों के लिए भी यथायोग्य देशोंको दिया । उस समय वह नागकुमार महामण्डलेश्वरकी विभूतिसे संयुक्त हुआ। उसके आठ हजार रानियाँ थीं। इनमेंसे उसने लक्ष्मीमती, धरणिसुन्दरी, त्रिभुवनरति और गुणवती इन चार रानियों को महादेवीका पद प्रदान किया । लक्ष्मीमतीके देवकुमार नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। वह भी पिताके ही समान महाप्रतापशाली था। इसके अतिरिक्त उसके और भी बहुत-से पुत्र उत्पन्न हुए। इस प्रकार नागकुमारने आठ-सौ वर्ष तक सुखपूर्वक राज्य किया। तत्पश्चात् वह एक दिन देखते ही देखते नष्ट होनेवाले मेघको देखकर भोगोंसे विरक्त हो गया। तब उसने देवकुमार पुत्र को राज्य देकर व्याल आदि कोटिभटों, सहस्रभटों, मुकुटबद्धों और मण्डलेश्वर आदि राजाओंके साथ अमलमति केवलीके पासमें दीक्षा धारण कर ली । लक्ष्मीमती आदि स्त्रियों के समूहने भी पद्मश्री आर्यिकाके समीपमें दीक्षा ले ली । प्रतापंधर मुनिने चौंसठ वर्ष तक तपश्चरण किया। उन्हें कैलास पर्वतके ऊपर केवलज्ञान प्राप्त हुआ। उसी प्रकार व्याल, महाव्याल, अच्छेद्य और अभेद्य भी केवलज्ञानी हुए। नागकुमार केवली छ्यासठ वर्ष तक विहार करके उसी पर्वतसे मुक्तिको प्राप्त हुए । व्यालादि भी मुक्तिको प्राप्त हुए। वह नागकुमार नेमि जिनेन्द्र के तीर्थमें उत्पन्न हुआ था। उसका कुमारकाल सत्तर (७०) वर्ष, राज्यकाल आठ सौ ( ८०० ) वर्ष, छद्मम्थकाल चौंसठ (६४ ) वर्ष और केवलिकाल छ्यासठ १. फ्भ्यासे दीक्षिता । २. ज प श पृथ्वी अच्युत ब पृथ्वी च्युते । ३. ब 'दत्त्वा' नास्ति । ४. श सीर'। ५. ज प लक्ष्मीमत्याः । ६. फ श°भेद्या च । २४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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