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________________ १६४ पुण्यात्रवकथाकोशम् [५-१, ३४: साधुरचीकथत् । तद्यथा- फाल्गुनस्य वाषाढस्य वा कार्तिकस्य वा शुक्लस्य चतुर्थी शुचिर्भूत्वा साधुमार्गेण भुक्त्वोपवासो ग्राह्यस्तदिवसे सर्वाप्रशस्तव्यापाराणि विहाय धर्मकथाविनोदेन दिनं गमयित्वा सरागशय्यां विवर्य पारणाह्नि यथाशक्ति पात्राय दानं दद्यात्, पश्चात्स्वयं बन्धुभिः पारणां कुर्यात् । एवं प्रतिमासे पञ्चवर्षाणि पञ्चमासाधिकानि वा पञ्चैव मासान् कृत्वोद्यापने पञ्च चैत्यालयान् पञ्चप्रतिमा वा कारयित्वा कलशचामरध्वजदीपिकाघण्टाजयघण्टादिपञ्चपञ्चस्वरूपसहिताः प्रतिष्ठाप्य वसतये दद्यात, पञ्चाचार्येभ्यः पुस्तकादिकमार्यिकाश्रावकश्राविकाभ्यो वस्त्रादिकं दद्यात् तथा यथाशक्ति दानादिकेन प्रभावनां कुर्यादेतत्फलेन स्वर्गादिसुखनाथो भवेत् इति । निशम्य लक्ष्मीमत्यादिसहितः पञ्चम्यपवासविधि गृहीत्वा तत्र कुर्वन सुखेन तस्थौ । तावजयंधरो नयंधरं तमानेतुं प्रस्थापयामास । स गत्वा मातापितृभाषितं सर्व तस्य कथयति स्म । तदा नागकुमारः प्रागविवाहितकान्तादियुक्तो गगनमार्गेण स्वपुरमाययौ। पिता विभूत्यार्धपथं निर्जगाम । तं नत्वा यावत्प्रतापंधरः पुरं प्रविशति तावद्विशालनेत्रा पुत्रेण सह दीक्षिता । नागकुमारोऽतिवल्लभो भूत्वा सुखं तस्थौ। जयंधरस्त्वेक फाल्गुन, अषाढ़ और कार्तिक माससे शुक्ल पक्षकी चतुर्थीको स्नानादिसे शुद्ध होकर समीचीन मार्गसे भोजन ( एकाशन ) करे और उसी समय पञ्चमीके उपवासको भी ग्रहण कर ले । फिर उपवासके दिन समस्त अप्रशस्त व्यापारोंको ( कार्योंको) छोड़कर दिनको धर्मचर्चामें बितावे । साथ ही रागवर्धक शय्या ( गादी व पलंग आदि ) का परित्याग करके पारणाके दिन शक्ति के अनुसार पात्रके लिए दान देवे । तत्पश्चात् बन्धुजनोंके साथ स्वयं पारणाको करे। इस प्रकार पाँच मांसोंसे अधिक पाँच वर्षों तक अथवा पाँच महीनों तक ही प्रतिमासमें उपवासको करके उद्यापनके समय पाँच चैत्यालयों अथवा पाँच प्रतिमाओंको कराकर कलश, चामर, ध्वजा, दीपिका, घण्टा और जयघण्टा आदिको पाँच पाँच-पाँच संख्यामें प्रतिष्ठित कराकर जिनालयके लिए देना चाहिए । पाँच आचार्योंके लिए पुस्तक आदिको तथा आर्यिका, श्रावक और श्राविकाओंके लिए वस्त्रादिको देना चाहिए। इसके अतिरिक्त अपनी शक्तिके अनुसार दानादिके द्वारा प्रभावना करना भी योग्य है । उस व्रतके फलसे प्राणी स्वर्गादिसुखका भोक्ता होता है । इस प्रकार पञ्चमीके उपवासकी विधिको सुनकर नागकुमारने लक्ष्मीमती आदिके साथ पञ्चमी-उपवासकी विधिको ग्रहण कर लिया । पश्चात् वह उस व्रतका परिपालन करता हुआ सुखपूर्वक स्थित हुआ। इतनेमें जयंधर राजाने नागकुमारको लानेके लिए उसके पास अपने मन्त्री नयंधरको भेजा। उसने जाकर माता-पिताने जो कुछ सन्देश दिया था उस सबको नागकुमारसे कह दिया । तब नागकुमार पूर्वपरिणीता पत्नियोंको साथ लेकर आकाशमार्गसे अपने नगरमें आ गया। उसको लेनेके लिए पिता विभूतिके साथ आधे मार्ग तक आया । प्रतापंधर पिताको प्रणाम करके जब तक पुरमें प्रवेश करता है तब तक विशालनेत्रा पुत्र ( श्रीधर ) के साथ दीक्षा धारण कर लेती है । नागकुमार वहाँ प्रजाका अतिशय प्यारा होकर सुखपूर्वक रहने लगा। तत्पश्चात् एक १. फ ब भुक्तोपवासो। २. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श विसर्य । ३. फ श पारणानि ब पारणाहे । ४. श वधूभिः । ५. ज फ श पारणा: । ६. फ श जयाघण्टादि । ७. फ गत्वा पितृभाषितम् । ८. फ विवाहिताकान्तादियुक्तो श विवाहकान्तावियुक्तो। ९. ज पुत्रेणादीक्षितः पश पुत्रेणादीक्षित ब पुत्रेणादीक्षिता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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