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________________ १७४ पुण्यास्रवकथाकोशम् [५-१, ३४ विद्यासिद्धिप्रस्तावे देवदुन्दुभिनिनादमवधार्य शुद्धयेऽवलोकिनीमस्थापयत् । तयागत्य विशप्तो देव, सिद्धविवरगुहायां मुनिसुव्रतमुनेः केवलोत्पत्ती समागुः सुरा इति । ततस्तं वन्दितुमियाय । समय॑ तुष्टवान् दीक्षां ययाचे। अस्माभिरुक्तं कष्टेनास्मान् साधयित्वास्मत्फलं किमपि भुक्त्वा पश्चात्तपः कुरु। कथमपि यदा न तिष्ठति तदास्माभिरुक्तं कस्यचिदस्मान् समर्प्य तपो गृहाणेति । तेन केवलिनं पृष्ट्रोक्तमग्रेऽत्र' काञ्चनगुहायां नागकुमार आगमिष्यति, तं सेवन्तामिति निरूप्य प्रवज्य मोक्षमुपजगाम । वयमत्र स्थिताः । त्वमस्मत्स्वामीत्यस्मान् स्वीकुरु । स्वीकृताः, स्मरणेन आगच्छतेति निरूप्य निर्गतः । पुना, पप्रच्छापरमपि कौतूहलं कथय । तेन भिल्लेन वेतालगुफा दर्शिता । तद्वारि खड्गं भ्रामयन् वेतालस्तिष्ठति । स यस्तत्र प्रविशति तं हन्ति । तं वीक्ष्य तद्घातं वञ्चयित्वा पादे धृत्वाकृष्य पातयति स्म । तदधो निधीनपश्यच्छासनं च वाचितवान् यो वेतालं पातयति स निधिस्वामीति । निधिरक्षणं विद्यानां दत्त्वा तस्मानिर्गत्य पुनर्व्याधं पृष्टवान किमपरं कौतुकमस्ति न वेति । नास्तीत्युक्ते जिनमानम्य तस्मानिर्जगाम । गिरिनगरासन्ने वंटीवृक्षाध उपविष्टस्तदैव सिद्ध किया था। विद्याओंके सिद्ध हो जानेपर उसने देवदुंदुभीके शब्दको सुनकर कारण ज्ञात करनेके लिये अवलोकिनी विद्याको भेजा। उसने वापिस आकर जिनशत्रुसे निवेदन किया कि हे देव ! सिद्धविवर गुफामें मुनिसुव्रत मुनिके केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है। इसीलिये वहाँ देव आये हैं । यह ज्ञात करके जितशत्रु केवलीकी वन्दनाके लिए गया। वहाँ जाकर उसने केवलीकी पूजा करके सन्तुष्ट होते हुए उनसे दीक्षा देनेको प्रार्थना की। तब हम लोगोंने उससे कहा कि तुमने हमें कष्टपूर्वक सिद्ध किया है, इसलिये हमारे कुछ फलको भोगकर पीछे तप करना । परन्तु जब उसने यह स्वीकार नहीं किया तब हम लोगोंने उससे कहा कि तो फिर हम लोगोंको किसी दूसरेके लिए देकर तपको ग्रहण करो । तब उसने केवलीसे पूछकर हमसे कहा कि आगामी कालमें यहाँ इस कांचनगुफाके भीतर नागकुमार आवेगा, तुम सब उसकी सेवा करना । यह कहकर उसने दीक्षा ग्रहण कर ली । वह तपश्चरण करके मोक्षको प्राप्त हो चुका है। तबसे हम लोग यहाँ स्थित हैं । तुम हमारे स्वामी हो, अतः हमें स्वीकार करो। तब नागकुमारने उन्हें स्वीकार करके उनसे कहा कि जब मैं स्मरण करूँ तब तुम आना । यह कहते हुए उसने गुफासे निकलकर उस भीलसे पुनः पूछा कि क्या तुमने और भी कोई आश्चर्य देखा है ? इसपर भीलने उसे बेतालगुफा दिखलायी। उसके द्वारपर तलवारको घुमाता हुआ वेताल स्थित था । वह जो भी उस गुफाके भीतर जाता था उसे मार डालता था । नागकुमारने उसे देखकर उसके प्रहारको बचाते हुए पाँव पकड़े और नीचे पटक दिया। उसके नीचे नागकुमारको निधियोंके साथ एक आज्ञापत्र दिखा । उसने जब उस आज्ञापत्रको पढ़ा तो उसमें लिखा था कि जो इस वेतालको गिरावेगा वह इन निधियोंका स्वामी होगा। तब वह उन निधियोंकी रक्षाका भार विद्याओंको सौंपकर वहाँसे बाहर निकला । फिर उसने उस व्याधसे पुनः पूछा कि क्या और भी कोई आश्चर्य देखा है अथवा नहीं ? व्याधने उत्तर दिया 'नहीं'-1 तत्पश्चात् नागकुमार जिनदेवको प्रणाम करके वहाँसे निकला और गिरिनगरके समीप एक वट वृक्षके नीचे बैठ गया। उसी समय उस वृक्षके प्ररोह ( जटायें ) निकल आये । नागकुमार १. ब केवलो पृष्टोक्तमग्रेत्र । २. ब त्वमेवास्मात्स्वा । ३. व 'भिल्लेन' नास्ति । ४. फ पश्यत् सिहासनं चावोचितवान् श पश्यच्छाशनं वाचितवान् । ५. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श किमपि। ६. ब वडीवृक्षा। www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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