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________________ १५३ :४-५, ३०] ४. शीलफलम् ५ [ ३० ] नारीषु रम्या त्रिदशस्य पूज्या राज्ञी प्रभावत्यभिधा बभूव । त्रिलोकपूज्यामलशीलतो यत् शीलं ततोऽहं खलु पालयामि ॥५॥ अस्य कथा-वत्सदेशे रौरवपुरे राजा उद्दायनो राक्षी प्रभावती शुद्धजैनी। राजा प्रत्यन्तवासिनामुपरि ययौ। इतः प्रभावत्या धात्री मन्दोदरी, सा परिव्राजिका जज्ञे। सा बह्रोभिः परिवाजिकाभिरागत्यं तत्पुरबाोऽस्थात् । प्रभावतीनिकटमहमागतेति निरूपणार्थ कामपि नारीमयापयत्तया गत्वा त्वदवलोकनार्थ मन्दोदरी समागत्य बहिस्तिष्ठतीति कथिते देव्योक्तं मनिवासमागच्छन्तु । तया पुनर्गत्वा तथा निरूपिते राशी संमुखं नागतेति सा कोपेन तदगृहं प्रविष्टा । प्रभावत्या प्रणाममकृत्वासनस्थय तस्या आसनं दापितम् । तदा मन्दोदोक्तम्- हे पुत्रि, पूर्व तावदहं ते माता, सांप्रतं तपस्विनी, किं मां न प्रणमर्सि। प्रभावत्यभणत्-- अहं सन्मार्गस्था, त्वं चोन्मार्गस्थेति न प्रणमामि । परिव्राजिकावदच्छिवप्रणीतः सन्मार्गः किं न भवति । देव्योक्तं 'न' । तदोभयोर्महाविवादोऽजनि । देव्या निरुत्तरं जिता।सामनसि कुपिता जगाम। देव्या रूपं पटेलिलेखोजयिनीशचण्डप्रद्योतनाय दर्शयामास । स्त्रियोंमें रमणीय प्रभावती नामकी रानी निर्मल शीलके प्रभावसे देवके द्वारा पूजाको प्राप्त होकर तीनों लोकोंकी पूज्य हुई है । इसीलिये मैं उस शीलका परिपालन करता हूँ ॥५॥ इसकी कथा इस प्रकार है-- वत्सदेशके भीतर रौरवपुरमें उद्दायन नामका राजा राज्य करता था। रानीका नाम प्रभावती था। वह विशुद्ध जैन धर्मका परिपालन करती थी। एक समय राजा म्लेच्छ देशमें निवास करनेवाले शत्रुओंके ऊपर आक्रमण करने के लिए गया था। इधर प्रभावतीकी जो मन्दोदरी धाय थी उसने दीक्षा ले ली। वह बहुत-सी साध्वियोंके साथ आकर उक्त रौरवपुरके बाहर ठहर गई। उसने अपने आनेकी सूचना करनेके लिए प्रभावतीके पास किसी स्त्रीको भेजा । उसने जाकर प्रभावतीसे कहा कि तुम्हें देखनेके लिए मन्दोदरी यहाँ आकर नगरके बाहर ठहर गई है। यह सुनकर प्रभावती बोली कि उससे मेरे निवासस्थानमें आनेके लिए कह दो । तब उसने वापिस जाकर मन्दोदरीसे प्रभावतीका सन्देश कह दिया । इसे सुनकर रानीके अपने सन्मुख न आनेसे उसे क्रोध उत्पन्न हुआ। वह उसी क्रोधके आवेशमें प्रभावतीके घरपर पहुँची । प्रभावती उसे नमस्कार न करके अपने आसनपर ही बैठी रही और इसी अवस्थामें उसने मन्दोदरी के लिए आसन दिलाया । तब मन्दोदरी बोली कि हे पुत्री ! पूर्वमें मैं तेरी माता थी और इस समय तपस्विनी हूँ। मेरे लिए तू प्रणाम क्यों नहीं करती है ? इसके उत्तरमें प्रभावतीने का कि मैं समचीनी मार्गमें स्थित हूँ, किन्तु तुम कुमार्गमें प्रवृत्त हो; इसीलिए मैं तुम्हें नमस्कार नहीं कर रही हूँ | इसपर मन्दोदरी बोली कि क्या महादेवके द्वारा प्ररूपित मार्ग समीचीन नहीं है ? प्रभावतीने कहा कि 'नहीं' । तब उन दोनों के बीचमें बहुत विवाद हुआ । अन्तमें प्रभावतीने उसे निरुत्तर करके जीत लिया । इससे वह मन ही मन क्रोधित होकर चली गई। तब उसने प्रभावतीके सुन्दर रूपको चित्रपटके ऊपर लिखकर उसे उज्जयिनीके राजा चण्डप्रद्योतनके लिए दिखलाया । १. ब या। २. फ वस्तदेश श वस्तदेशे। ३. ब रोरकपुरे । ४. श सा परिवाजिका भगवंतदाक्षभिरागत्य । ५. फ निकटमागतेति । ६. ब कापि । ७. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श गत्वाकथित्वदव। ८. फब सनस्थैव । ९. ब मां किं न प्रणमति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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