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________________ १५४ goraवकथाकोशम् [ ४-५, ३० : स चासको भूत्वा तत्पतेस्तत्राभावं विबुध्य समस्तसैन्येन तत्र ययौ, बहिर्मुमोच । देव्यन्तिकमतिविचक्षणं नरमगमयत् । तेन गत्वा देव्या अग्रे स्वस्वामिनो गुणरूपसौन्दर्यद्वारेण प्रशंसा कृता । सालालपीत् किं तद्गुणादिना, उद्दायनादन्ये मे जनकादिसमास्ततस्तद्दतो निःसारितः । अन्येषां प्रवेशो निवारितोऽन्तः स्थितं बलं संनद्धम्, गोपुराणि दत्त्वा दुर्गस्योपरि स्थितम् । तदा स पुरग्रहणायोद्यमं चकार । युद्ध माकर्ण्य सा स्वदेवतार्चनगृहेऽस्मिन्नुपसर्गे निवर्तिते शरीरादौ प्रवृत्तिर्नान्यथेति प्रतिज्ञया स्थितम् । तदवसरे कश्चिद्देवो नभोऽङ्गणे गच्छंस्तस्या उपरि विमानागते तस्या उपसर्ग विज्ञाय मनसैव बहिःस्थं बलमुजयिन्यामस्थापयत् । स्वयं तच्छीलपरीक्षणार्थं चण्डप्रद्योतनो भूत्वा बलं विकुर्व्य माययान्तःस्थं बलं निपात्यान्तः प्रविश्य तद्देवतार्चनगृहं विवेश । विचित्रपुरुषविकारैस्तच्चित्तं भेत्तुमशक्तो मायामपसंहृत्य तां पूजयामास । शीलवतीति घोषयित्वा स्वर्लोक मियाय । इत श्रागतो राजा तद्वृत्तं विवेद जहर्ष च । बहुकालं राज्यं च कृत्वा सुकीर्तिनामानं नन्दनं भूपं विधाय वर्धमान 1 उसको, देखकर चण्डप्रद्योत उसके ऊपर आसक्त हो गया । उसे यह ज्ञात ही था कि उसका पति उद्दायन अभी वहाँ नहीं है । इसीलिए वह समस्त सेनाके साथ रौरवपुरमें जा पहुँचा । उसने वहाँ नगरके बाहर पड़ाव डालकर रानीके पास एक अतिशय चतुर मनुष्यको भेजा । उसने जाकर प्रभावती के आगे अपने स्वामीके गुण, रूप एवं सौन्दर्य की खूब प्रशंसा की। उसे सुनकर प्रभावतीने कहा कि मुझे तुम्हारे स्वामी गुण आदिसे कुछ भी प्रयोजन नहीं है, उद्दायनके सिवा अन्य सब जन मेरे लिए पिता आदि समान हैं । यह कहकर उसने उस दूतको घरसे निकाल दिया । फिर उसने अपने यहाँ अन्य पुरुषोंके आगमनको रोक दिया और भीतरी सैन्यको सुसज्जित करते हुए गोपुरद्वारोंको बंद करा दिया । वह स्वयं दुर्गके ऊपर स्थित हो गई । तब वह चण्डप्रद्योतन नगरको अपने अधिकारमें करनेके लिए प्रयत्न करने लगा । युद्धको सुनकर प्रभावती अपने देवपूज (भवन (चैत्यालय) में चली गई । वहाँ वह 'जब यह उपद्रव नष्ट हो जावेगा तब ही मैं शरीर आदिके विषय में प्रवृत्ति करूँगी, अन्यथा नहीं, यह प्रतिज्ञा करके स्थित हो गई। इसी समय कोई देव आकाशमार्ग से जा रहा था। उसका विमान प्रभावती के ऊपर आकर रुक गया । इससे उसे प्रभावती के ऊपर आए हुए उपसर्गका परिज्ञान हुआ । तब उसने मनके चिन्तनसे ही नगरके बाहर स्थित चण्डप्रद्योतन के सैन्यको उज्जयिनी में भेज दिया और स्वयंने प्रभावतीके शीलकी परीक्षा करनेके लिए चण्डप्रद्योतन के रूपको ग्रहण कर लिया । साथ ही उसने विक्रियासे सेनाका भी निर्माण कर लिया । पश्चात् वह दुर्गके भीतर स्थित सैन्यको मायासे नष्ट करके उसके भीतर पहुँच गया । फिर उसने देवपूजाभवनमें जाकर प्रभावती के सामने अनेक प्रकारकी कामोत्पादक पुरुषकी चेष्टाएँ कीं । परन्तु वह उसके चित्तको विचलित नहीं कर सका । तब उसने उस मायाको दूर करके प्रभावती की पूजा करते हुए यह घोषणा कर दी कि वह शीलवती है। अन्त में वह स्वर्गलोकको वापिस चला गया । तत्पश्चात् नगर में वापिस आनेपर जब यह समाचार राजा उद्दायनको ज्ञात हुआ तब उसे अतिशय हर्ष हुआ । फिर उसने बहुत समय तक राज्य किया । अन्तमें उसने अपने सुकीर्ति नामक पुत्रको १. श गुणसौन्दर्य ं । २. व तनुगुणादिना 1 ३ ब प्रतिपाठोऽयम् । श निवर्त्तते । ४. बस्तस्योपरि । ५. फ ब तस्योपसर्ग । ६. शनिपात्यन्तः । ७. ब. मुपसंहृत्य । ८. फ 'च' नास्ति । ९ ब प्रतिपाठोऽयम् । श नंदनं राज्यं विधाय । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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