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________________ १५२ पुण्यानवकथाकोशम् [४-४,२९: हा-हारवः कृतः। तदनु तेन देवेनाग्निकुण्डं सरः कृतम् , तन्मध्ये सहस्रदलकमलम् , तत्कर्णिकामध्ये सिंहासनस्योपरि उपवेशिता। उपरि मणिमण्डपः कृतः। तदनु पञ्चाश्चर्याजनानन्दः। देवपूज्यजानकीनिकटं राघवेनागत्य भणितं जनापवादभयेन यन्मया कृतं तत्सर्वे क्षमित्वा मया सार्ध भोगानुभवनं कुरु । तयोक्तं त्वां प्रति क्षमैव, किंतु यैः कर्मभिरेतत्कृतं तानि प्रति क्षमाऽभावः। तेषां विनाशनिमित्तं तपश्चरणमेव शरणम् , नान्यदिति केशान् उत्पाटय रामाने क्षिप्त्वा देवपरिवारेण सह समवसृतिं गत्वा जिनवन्दनापूर्वकं पृथ्वीमतिक्षान्तिकाभ्यासे निःक्रान्ता। रामोऽपि केशानालिङ्ग्य मूच्छितोऽन्तःपुरेणोन्मूञ्छितः कृतः सन् सीतातपोविनाशनार्थ समस्तजनेन सह तत्र गतः । जिनदर्शनादेव मोहोपशमे जाते निरा” जिनमभ्यर्थ्य स्तुत्वा च स्वकोष्ठे उपविष्टोधर्मश्रुतेरनन्तरं रामादयः सीतया क्षमितव्यं विधाय पुरं प्रविष्टाः । सीतार्जिको द्वाषष्टिवर्षाणि तपश्चकार । त्रयस्त्रिंशद्दिनानि संन्यसनेन तनुं विसृज्याच्युते स्वयंप्रभनामा प्रतीन्द्रोऽभूदिति । एवं स्त्री बाला मोहावृतापि शीलेन देवपूज्या जातान्यः किं न स्यादिति ॥४॥ देखनेवाली समस्त ही जनता 'हा सीता, हा सीता' कहकर हा-हाकार कर उठी। पश्चात् उस देवने इस अग्निकुण्डको तालाब बना दिया। तालाबके भीतर उसने हजार पत्तोंवाले कमलकी रचना की और उसकी कर्णिकाके मध्य में सिंहासनको स्थापित करके उसके ऊपर सीताको विराजमान किया। उसने उस सिंहासनके ऊपर मणिमय मण्डपका निर्माण किया। तत्पश्चात् उसने जो पंचाश्नर्य किये उन्हें देखकर सब ही जनोंको आनन्द हुआ । इस प्रकार देवोंसे पूजित हुई सीताके पास जाकर रामचन्द्रने कहा कि लोकनिन्दाके भयसे मैंने जो यह कार्य किया है उस सबको क्षमा करो और अब पूर्ववत् मेरे साथ भोगोंका अनुभव करो। इसके उत्तरमें सीता बोली कि तुम्हारे प्रति मेरा क्षमाभाव ही है, किन्तु जिन कर्मोंने यह सब किया है उनके प्रति मेरा क्षमाभाव नहीं है। इसलिये उनको नष्ट करनेके लिये अब मैं तपश्चरणकी ही शरण लूँगी। उसको छोड़कर अन्य कुछ भी मुझे प्रिय नहीं है । इस प्रकार कहते हुए उसने केशोंको उखाड़ कर उन्हें रामके आगे फेंक दिया । तत्पश्चात् देव परिवारके साथ समवसरणमें जाकर उसने जिन भगवान् की वंदना की और पृथ्वीमती आर्यिकाके पास दीक्षा ग्रहण कर ली। इधर राम उन केशोंको देखकर मूर्छित हो गये। तत्पश्चात् अन्तःपुरकी स्त्रियों-द्वारा उनकी मूर्छाके दूर करनेपर वे समस्त जनताके साथ सीताको तपसे भ्रष्ट करनेके लिये बहाँ गये। वहाँ जाकर जिन भगवान्का दर्शन मात्र करनेसे ही उनका वह मोह नष्ट हो गया । तब उन्होंने आर्तध्यानसे रहित होकर जिन भगवान्की पूजा व स्तुति की। फिर वे मनुष्योंके कोठेमें जा बैठे । धर्मश्रवण करने के पश्चात् राम आदि सीतासे क्षमा कराके नगरमें वापिस आ गये। सीता आर्यिकाने बासठ वर्ष तपश्चरण किया। तत्पश्चात् उसने तेंतीस दिन तक संन्यासको धारण करके शरीरको छोड़ा। वह अच्युत स्वर्गमें स्वयंप्रभ नामका प्रतीन्द्र उत्पन्न हुई। इस प्रकार मोहसे युक्त वह बाला स्त्री भी जब शीलके प्रभावसे देवोंसे पूजित हुई है तब भला अन्य पुरुष क्या न होगा ? अर्थात् वह तो अनुपम सुखको प्राप्त होगा ही ॥४॥ १. श केशात्र उत्पाद्य व केशानुत्पाद्य । २. ब सीतायिका। ३. ब सन्न्यासनेन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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