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________________ : ४-४, २ε ] ४. शीलफलम् ४ I " शतान्तःपुरमुख्या किरणमण्डला । तस्याः पितुर्भगिनीपुत्रो हेममुखः, सा तस्य सोदरस्नेहरूपेण स्नेहिता । सिंहविक्रमेण प्रव्रजिता सकलभूषणो राज्ये धृतः । एकदा तस्मिन् राशि बहिर्गते राशीभिरागत्य देवी भणिता हेममुखरूपं पटे विलिख्य प्रदर्शय । तयोक्तं नोचितम् । ताभिरुक्तं दुष्टभावेन नोचितम् निर्विकल्पकभावेन दोषाभावः इति प्रार्थ्य लेखितम् । श्रागतेन राज्ञा तद् दृष्ट्रा रुषितम् । ततः सर्वाभिः पादयोः पतित्वोपशान्ति नीतः । कियति काले ग एकस्यां रात्रौ तथा सुप्तावस्थायां 'हा हेममुख' इति जल्पितम् । श्रुत्वा राजा वैराग्यात् प्रव्रजितः । सकलागमधरो नानर्द्धिसंपन्नश्च महेन्द्रोद्याने प्रतिमायोगेन स्थितः । सा श्रार्तेन मृत्वा व्यन्तरी जाता । तया तत्र स्थितस्य मुनेर्गृढवृत्त्या सप्तदिनानि घोरोपसर्गे कृते तस्मिनेवावसरे जगत्त्रयावभासि केवलमुत्पन्नम् । तत्पूजानिमित्तं देवागमे जाते तस्या उपरि विमानागतेरिन्द्रेण महासतीदिव्यमवधार्य प्रभावनानिमित्तं मेघकेतुदेवः स्थापितः । स यावदाकाशे तिष्ठति तावत्सीता प्रतिज्ञां कृत्वा पञ्चपरमेष्ठिनः स्मृत्वा श्रग्निकुण्डं प्रविष्टा । प्रवेशं दृष्ट्वा राघवो मूच्छितः, केशवो विह्वलः, पुत्रौ विस्मितौ । सर्वजनेन हा जानकी हा जानकीति आठ सौ स्त्रियाँ थीं। उनमें किरणमण्डला नामकी स्त्री मुख्य थी । किरणमालाकी बुआके एक हेममुख नामका पुत्र था । वह उसके साथ सहोदर ( सगा भाई ) के समान स्नेह करती थी । राजा सिंहविक्रमने सकलभूषण पुत्रको राज्य पदपर प्रतिष्टित करके दीक्षा धारण कर ली । एक समय अन्य रानियोंने आकर किरणमालासे कहा कि हे देवी! हमें हेममुखके सुन्दर रूपको चित्रपटपर लिखकर दिखलाओ। इसपर उसने कहा कि ऐसा करना योग्य नहीं है । तब उन सबने कहा कि दुष्ट भावसे वैसा करना अवश्य ही ठीक नहीं है, किन्तु निर्विकल्पक भाव से - (भ्रातृस्नेह से) वैसा करने में कोई दोष नहीं है । इस प्रकार प्रार्थना करके उन सबने उससे चित्रपटके ऊपर हेममुखके रूपको लिखा लिया। इधर राजाने आकर जब किरणमालाको ऐसा करते देखा तब वह उसके ऊपर क्रुद्ध हुआ । उस समय उन सब रानियोंने पाँवों में गिरकर उसे शान्त किया । फिर कुछ कालके बीतने पर एक रातको जब वह शय्यापर सो रही थी तब नींदकी अवस्था में उसके मुखसे 'हा हेममुख' ये शब्द निकल पड़े । इन्हें सुनकर राजाको वैराग्य उत्पन्न हुआ । इससे उसने दीक्षा ग्रहण कर ली । इस प्रकार दीक्षित होकर वह समस्त श्रुतका पारगामी होता हुआ अनेक ऋद्धियों से सम्पन्न हो गया । वह उस समय महेन्द्र उद्यानके भीतर समाधिमें स्थित था । इधर वह किरणमण्डला आर्तध्यान से मरकर व्यन्तरी हुई थी । उसने महेन्द्र उद्यानमें स्थित उन मुनिराजके ऊपर गुप्त रीति से सात दिन तक भयानक उपसर्ग किया । इसी समय उन्हें तीनों लोकों को प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान प्राप्त हो गया । तब उस केवलज्ञानकी पूजाके लिये वहाँ देवोंका आगमन हुआ । इस प्रकारसे आते हुए इन्द्रका विमान जब सती सीताके ऊपर आकर रुक गया, तब उसे महासती सीताके इस दिव्य अनुष्ठानका पता लगा । इससे उस इन्द्रने सीताके शीलकी महिमाको प्रगट करने के लिये मेघकेतु नामक देवको स्थापित किया । वह आकाश में स्थित ही था कि सीता पूर्वोक्त प्रतिज्ञा करके पाँच परमेष्ठियों का स्मरण करती हुई उस अग्निकुण्डके भीतर प्रविष्ट हुई। उसे इस प्रकारसे उस अग्निकुण्डमें प्रविष्ट होती हुई देखकर रामचन्द्रको मूर्छा आ गई, लक्ष्मण व्याकुल हो उठा, तथा लव व अंकुश आश्चर्यचकित रह गये । उस समय इस दृश्यको १. फतेऽतिराज्ञीभि । २. फ हेमसुखस्वरूपं । . फ हेमसुख । For Private & Personal Use Only १५१ Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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