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________________ १५० पुण्यास्त्रवकथाकोशम् [४-४, २६: एकस्मिन् दिने प्रधानैविज्ञप्तो रामः जगत्प्रसिद्धा महासती सीता आनेतव्या।रामेणोक्तं तच्छीलमजानता न त्यक्ता, जनापवादभयेन त्यक्ता । यथापवादो गच्छति तथा दिव्यः कश्चनाभ्युपगन्तव्यः । ततः सुग्रीवादिभिस्तत्र गत्या सीतां दृष्ट्वा प्रणम्य रामेणोक्तं सर्वे कथितम् । दीक्षार्थिन्याभ्युपगतम् । तदनु पुष्पकमारुह्यापराले अयोध्यामागत्य रात्री महेन्द्रोद्याने स्थिता । राज्यवसाने रामादयो देवतार्चनपूर्वकं सातिशयङ्गारालंकृता अास्थाने उपविष्टाः । तदनु आगता सीता यथोचितासने उपवेशिता। राम उवाच जनापवादभयेन त्यक्तासि, ततो दिव्येन जन-प्रत्ययः पूरयितव्य इति । 'इत्थं क्रियते' इति सीतयोक्ते तत एकस्मिन् रम्यप्रदेशे कुण्डं खनित्वा कालागरुगोशीर्षचन्दनादिभिर्नानासुगन्धेन्धनैः पूरयित्वा अग्नौ प्रज्वालितेऽङ्गारावस्थायां आसनादुत्थाय सीतयोक्तम् 'भो जनाः, शृणुत अस्मिन् भवे त्रिशुद्ध या रामाद्विना यद्यन्यः कश्चन दुष्टभावेन मे विद्यते तानेन कृशानुना मे मरणं भवतु' इति प्रतिज्ञाकरणकाले अपरं कथान्तरम् विजयार्धदक्षिणश्रेण्यां गुअपुराधिपसिंहविक्रमश्रियोः पुत्रः सकलभूषणस्तद्भार्याप्ट एक दिन मन्त्रियोंने रामसे प्रार्थना की कि लोकप्रसिद्ध महासती सीताको राजभवनमें ले आना उचित है। इसपर राम बोले कि सीताके शीलको न जानकर--उसके विषयमें शंकित होकर-उसका परित्याग नहीं किया गया है, किन्तु लोकनिन्दाके भयसे उसका परित्याग किया है । वह लोकनिन्दा जिस प्रकारसे दूर हो सके, ऐसा कोई दिव्य उपाय स्वीकार करना चाहिये । यह सुनकर सुग्रीव आदि पुण्डरीकपुरको गये । उनने सीताका दर्शन करके उससे रामके अभिप्रायको प्रगट किया । सीता इस घटनासे विरक्त हो चुकी थी। अब उसने दीक्षा ले लेनेका निश्चय कर लिया था। इसीलिये उसने रामके आदेशको स्वीकार कर लिया । पश्चात् वह पुष्पक विमानपर चढ़कर दोपहरको अयोध्या आ गई और रातमें महेन्द्र उद्यानमें ठहर गई । रात्रिका अन्त हो जानेपर राम आदिने प्रथमतः जिन-पूजन की । तत्पश्चात् वे वस्त्राभूषणोंसे अतिशय अलंकृत होकर सभाभवनमें विराजमान हुए। तब वहाँ वह सीता आकर उपस्थित हुई। उसे वहाँ यथायोग्य आसनके ऊपर बैठाया गया । तत्पश्चात् रामने सीतासे कहा कि मैंने लोकनिन्दाके भयसे तुम्हारा परित्याग किया है, इसलिये तुम किसी दिव्य उपायसे लोगोंको शीलके विषयमें विश्वास उत्पन्न कराओ। तब सीताने कहा कि ठीक है, मैं वैसा ही कोई उपाय करती हूँ। तत्पश्चात् सीताके इस प्रकार कहनेपर एक रमणीय स्थानमें कुण्डको खोदकर उसे कालागरु, गोशीर्ष और चन्दन आदि अनेक प्रकारके सुगन्धित इन्धनोंसे पूर्ण किया गया। फिर उसे अग्निसे प्रज्वलित करनेपर जब वह अंगारावस्थाको प्राप्त हो गया तब सीताने अपने आसनसे उठकर कहा कि हे प्रजाजनो ! सुनिए, यदि मैंने इस जन्ममें रामको छोड़कर किसी अन्य पुरुषके विषयमें मन, वचन व कायसे दुष्प्रवृत्ति की हो तो यह अग्नि मुझे भस्म कर देगी । इस प्रकार सीताके प्रतिज्ञा करनेपर यहाँ एक दूसरी कथा आती है जो इस प्रकार है विजयार्ध पर्वतकी दक्षिण श्रेणिमें गुंजपुर नामका नगर है। उसमें सिंहविक्रम नामका राजा राज्य करता था । रानीका नाम श्री था। इन दोनोंके एक सकलभूषण नामका पुत्र था । उसके १.फ जनापवादेन । २. प श कश्चनोफ कश्चिनो । ३. फ बश दीक्षार्थिना। ४. श सातिशयं प्रभाते शृं। ५. प उपविशिता। ६.फ 'इत्थं नास्ति । ७. ब प्रज्वलिते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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