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________________ : ४-४, २६] ४. शोलफलम् ४ १४६ यावत्सप्तमो रथः। इतोऽङ्कशाच्युतयोर्महारणे जाते अङ्कशेन मुक्त बाणं खण्डयितुमशक्तो हरिस्तेन मूञ्छितः । ततो विराधितेन रथोऽयोध्याभिमुखः कृतः । उन्मूञ्छितेन हरिणा व्याघुटय युद्धे क्रियमाणे सामान्यास्त्रैरजेयं दृष्ट्वा गृहीतं चक्ररत्नम् । ततः सीतादीनां भयमभूत् । परिभ्रम्य मुक्तं चक्रं खण्डमानमपि त्रिः परीत्य दक्षिणभुजे स्थितम् । तदङ्कुशेन गृहीत्वा तस्मै मुक्तम् । तत्तत्रापि तथा यावत्सप्तवारान् । तदनु उद्विग्नो हरिनिरुद्यमः स्थितः । नारदेनागत्योक्तं किमिति निरुद्यमः स्थितोऽसि । हरिणोक्तं किं क्रियते, अजेयोऽयम् । नारदेनोक्तं इमौ न ज्ञायते । जलजनाभेनोक्तम् , न । सीतापुत्राविति कथिते श्रवणादुत्पन्नहर्षोद्धसितगात्रः प्रहसितवदनोऽच्युतो रामसमीपं गतः। नत्वोक्तं देव, सीतातनुजाविमाविति । श्रुत्वा युद्धानि परित्यज्य रामलक्ष्मीधरौ संमुखमागच्छन्तौ संवीक्ष्य तावपि रथादुत्तीर्य मुकुलितकरकमलौ विनयान्वितावागत्य पादयोरुपरि पतितौ। रामेण हर्षादालिङ्गिती। ताभ्यां लक्ष्मणेन बहव आशीर्वादा दत्ताः । तदनु जगदाश्चर्येण स्वपुरं प्रविष्टौ । सीता स्वस्थानं गता। लवाङ्कुशौ युवराज्यपदव्यलंकृती जगत्त्रयविदितौ स्थिती। प्रकारसे तीसरे आदि रथके भी नष्ट होनेपर रामचन्द्र सात रथपर चढ़कर युद्ध करनेमें तत्पर हुए । इधर अंकुश और लक्ष्मणके बीच भी भयानक युद्ध हुआ। अंकुशके द्वारा छोड़े गये बाणको खण्डित न कर सकनेके कारण लक्ष्मण उसके आघातसे मूर्छित हो गया । तब विराधितने रथको अयोध्याकी ओर लौटा दिया । पश्चात् जब लक्ष्मणकी मूर्छा दूर हुई तब वह रथको फिरसे रणभूमिकी ओर लौटाकर युद्ध करनेमें लीन हो गया। अब जब लक्ष्मणको यह ज्ञात हुआ कि यह सामान्य शस्त्रोंसे नहीं जीता जा सकता है तब उसने चक्ररत्नको ग्रहण किया । इससे सीता आदिको बहुत भय उत्पन्न हुआ। इस प्रकार लक्ष्मणने उस चक्रको घुमाकर अंकुशके ऊपर छोड़ दिया । किन्तु वह निष्प्रभ होता हुआ तीन प्रदक्षिणा देकर उसके दाहिने हाथमें स्थित हो गया। फिर उसे अंकुशने लेकर लक्ष्मणके ऊपर छोड़ दिया । तब वह उसी प्रकारसे लक्ष्मणके हाथमें भी आकर स्थित हो गया। यह क्रम सात बार तक चला। तत्पश्चात् लक्ष्मणको बहुत उद्वेम हुआ। अन्तमें वह हतोत्साह होकर स्थित हुआ। यह देखते हुए नारदने आकर पूछा कि तुम हतोत्साह क्यों हो गये हो ? लक्ष्मणने उत्तर दिया कि क्या करूँ, यह शत्रु अजेय है। तब नारद बोले कि क्या तुम इन दोनोंको नहीं जानते हो ? उत्तरमें पद्मनाभ ( नारायण )ने कहा कि 'नहीं' । तब नारदने बतलाया कि ये दोनों सीताके पुत्र हैं। यह सुनकर उत्पन्न हुए हर्षसे लक्ष्मणका शरीर रोमांचित हो गया। तब वह प्रसन्नमुख होकर रामके समीप गया और उन्हें नमस्कार करके बोला कि हे देव ! ये दोनों सीताके पुत्र हैं। यह सुनकर राम और लक्ष्मण युद्धको स्थगित करके लव और अंकुशके समीपमें गये । उन्हें अपने सम्मुख आते हुए देखकर वे दोनों भी रथसे नीचे उतर पड़े और नम्रता पूर्वक हाथों को जोड़कर राम व लक्ष्मणके पाँवोंमें गिर गये । रामने उन दोनोंका हर्षसे आलिंगन किया तथा लक्ष्मणने उन्हें अनेक आशीर्वाद दिये । तत्पश्चात् वे सब संसारको आश्चर्यचकित करते हुए नगरके भीतर प्रविष्ट हुए । सीता वापिस पुण्डरीक पुरको चली गई। लव और अंकुश युवराज पदसे विभूषित होकर तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध हुए । १.प श मूच्छितो ततो। २. ५ ब खण्डयमानमपि। ३. ब- प्रतिपाठोऽयम् । पश मुक्तं तथापि तत्रापि या फ तत्रापि तथापि या । ४. ब- प्रतिपाठोऽयम् । प फ शतनुजाविति । ५. ब नताभ्यां । ६. बप्रतिपाठोऽयम् । श युवराज्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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