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________________ : ४-३, २८] ४. शीलफलम् ३ १४१ मुक्त कौतुकेन राशोद्घाटिता मञ्जूषा । तत्र स्थितस्वरूपं विशाय सर्वैरुपहासे कृते तो लजया दीक्षितौ। राज्ञा सत्यवतीसमीपं पुरुषः प्रेषितः 'उत्पलनेत्राया हारस्ते विवाहकाले चपलगतिनानीतः स दातव्यः' इति । तयादायि । तेन पुरुषेण राशो हस्ते दत्तस्तेन विलासिन्याः समर्पितः इति । ततो राजा कोपेन चपलगतेर्जिह्वाच्छेदं कारयन् कुबेरप्रियो न्यवारयत् । स चपलगतिः कुबेरप्रियस्य प्रभुत्वदर्शनात्प्रभुत्व मात्सर्येण कुप्यति, सत्यवत्या हारो दत्त इति तस्या अपि । उभयोरहितं चिन्तयन् विमलजला नदी विनोदेन गतः तत्तटस्थलतागृहे दिव्यां मुद्रिकामपश्यजग्राह च। तदा चिन्ताक्रान्तश्चिन्तागतिनामा विद्याधर आगत्येतस्ततो गवेषयन् चपलगतिना दृष्टः । तदनु हे भ्रातः, किमवलोकयसीत्युक्तवान् । खेचरोऽब्रूत मे मुद्रिका नष्टा, तां विलोकयामीति । ततः सोऽदत्त तां तस्मै । संतुष्टः खेचरोऽपृच्छत्तं कस्त्वमिति । चपलगतिरुवाच कुबेरप्रियस्य देवपूजकोऽहम् । ततः खेचरोऽब्रवीदेवं तर्हि स मे सखा । इयं च काममुद्रिकाभिलषितं रूपं प्रयच्छति । तद्धस्ते इमां प्रयच्छ । पश्चादहं तस्माद् ग्रहीष्यामि इति समर्प्य गतः । स तां गृहीत्वा स्वगृहमियाय स्वभ्रातरं पृथुमतिमशिक्षयञ्चतुपेटीके भीतर स्थित दोनों देवताओ ! कल चपलगतिने जो कुछ भी कहा था उसे यथार्थस्वरूपसे कह दो। तब उन दोनोंने यथार्थ बात कह दी। इसपर राजाको बहुत कौतूहल हुआ। तब राजाने उस पेटीको खुलवा दिया। उसके भीतरकी परिस्थितिको ज्ञात करके सब जनोंने उनका उपहास किया। इससे लज्जित होकर उन दोनोंने दीक्षा ले ली। फिर राजाने सत्यवतीके पास एक पुरुषको भेजकर उससे कहलाया कि तुम्हारे विवाहके समय चपलगति उत्पलनेत्राके जिस हारको लाया था उसे दे दो। तब उसने उस हारको उस पुरुषके लिए दे दिया और उसने लाकर उसे राजाके हाथमें दे दिया। राजाने उसे उस वेश्याके लिए समर्पित कर दिया । तत्पश्चात् राजाने क्रोधित होकर चपलगतिकी जिह्वाके छेदनेकी आज्ञा दे दी। परन्तु कुबेरप्रियने राजाको ऐसा करनेसे रोक दिया। कुबेरप्रियके प्रभुत्वको देखकर उस चपलगतिको उसकी प्रभुतापर ईर्ष्यापूर्वक क्रोध उत्पन्न हुआ। साथ ही सत्यवतीके उस हारको वापिस दे देनेके कारण चपलगतिको उसके ऊपर भी क्रोध हुआ। इस प्रकार वह इन दोनोंके अनिष्टका विचार करने लगा । एक दिन वह विनोदसे निर्मल जलवाली नदीपर गया। वहाँ उसे नदीके किनारेपर स्थित एक लतागृहमें एक दिव्य मुंदरी दिखायी दी । तब उसने उसे उठा लिया । उसी समय चिन्तागति नामका विद्याधर वहाँ आया और चिन्ताग्रस्त होकर कुछ इधर-उधर खोजने लगा। तब उसे इस प्रकार व्याकुल देखकर चपलगतिने पूछा कि हे भाई ! तुम क्या देख रहे हो ? यह सुनकर विद्याधर बोला कि मेरी एक मुंदरी खो गई है, उसे खोज रहा हूँ। तब चपलगतिने उसके लिए वह मुंदरी दे दी। इससे सन्तुष्ट होकर उस विद्याधरने चपलगतिसे पूछा कि तुम कौन हो ? उसने उत्तर दिया कि मैं कुबेरप्रियका देवपूजक (पुजारी) हूँ। यह सुनकर विद्याधर बोला कि वह तो मेरा मित्र है। यह काममुद्रिका अभिलषित रूपको देती है। इस मुद्रिकाको तुम कुवेरमित्रके हाथमें दे देना, पीछे मैं उसके पाससे ले लूँगा; यह कहकर विद्याधरने चपलगतिके लिए वह मुद्रिका दे दी। इस प्रकारसे वह चपलगति उक्त मुद्रिकाको लेकर अपने घर गया । वहाँ उसने अपने भाई पृथुमतिको समझाया कि चतुर्दशीके दिन अपराह्नमें जब मैं राजाके पास बैठा १. फ हास्ये । २. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श पृष्टः । ३. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श गृहं निनाय । ४. प श मतिं विशिष्ययच्चतु फ शिक्षयच्चतु। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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