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________________ १४२ पुण्यानवकथाकोशम् [ ४-३, २८: दश्यामपराले इमामङ्गुल्यां' निक्षिप्य सत्यवतीगृहं गच्छ यदाहं राजसमीपे तिष्ठामि । सत्यवती राजभवनसंमुखभद्रे चोपवेष्यति तदा कुबेरप्रियस्य रूपं मनसि धृत्वेमामङ्गुलौ भ्रामय, तद्रूपं भविष्यति । तदा तन्निकटे विकारचेष्टां कुर्विति । तदा पृथुमतिस्तथा तांचकार । चपलगती रोशस्तं दर्शयामासोक्तवांश्च 'देवेयत्यां वेलायां कुबेरप्रियोऽनया सार्धमेवं क्रीडतीति पूर्व यन्मया श्रुतमनया तिष्ठतीति सत्यं जातम्' इति । राम्रोक्तं सोऽद्योपोषितस्तस्येदं किं संभवति । चपलगतिनाभाणि प्रत्यक्षेऽर्थे ऽपि संदेहस्तस्मादनयोः शास्तिः कर्तव्येति । तर्हि त्वमेव कुर्वित्युक्ते महाप्रसाद इति भणित्वा चपलगतिस्तस्य शिरश्छेदनानन्तरमस्या नासिकालवणं करिष्यामीति सत्यवत्या रक्षां कृत्वा इमं कुबेरप्रियं महान्यायिनं प्रातरियामीति मायास्वभ्रातरं धृत्वा स्वगृहं निनाय । तं मुक्त्वा श्मशानात्कुबेरप्रियमानीय तत्रास्थापयत्तदा पुरक्षोभोऽभूत् । श्रेष्ठी 'यद्यस्मिन्नुपसर्गे जीविष्यामि पाणिपात्रेण भोक्ष्ये' इति गृहीतप्रतिशः। सत्यवत्यपि अनयैव प्रतिज्ञया स्वदेवतार्चनगृहे कायोत्सर्गेणास्थात्। राजा दुःखेन तूलिकातले पतित्वा स्थितः। प्रातः तं शीर्ष केशेषु धृत्वा पितृवनं निनाय । तत्रोपवेश्य तच्छिरोहननार्थ चण्डाभिधमातङ्गमाहूय तद्धस्तेऽसिं दत्त्वैतच्छिरो घातयेत्यवोचत् । तदा तच्छीलप्रभावन होऊँ तब तू इस मुद्रिकाको अपनी अंगुलीमें पहिनकर सत्यवतीके घर जाना । वहाँ पहुँचनेपर जब सत्यवती तुम्हें राजभवनके सम्मुख स्थित भद्रासनपर बैठा दे तब तुम कुबेरप्रियके रूपका मनमें चिन्तन करके अँगुलिमें स्थित इस मुद्रिकाको घुमाना। इससे तुम्हें कुबेरप्रियका रूप प्राप्त हो जावेगा । फिर तुम सत्यवतीके समीपमें कामविकारकी चेष्टा करनेमें उद्यत हो जाना । तदनुसार उस समय पृथुमतिने वह सब कार्य चेष्टा की भी। तब चपलगतिने उसे राजाको दिखलाया और कहा कि हे देव ! कुबेरप्रिय इतने समयमें सत्यवतीके साथमें इस प्रकारकी क्रीड़ा किया करता है, यह जो मैंने सुना था वह इस समय उसे सत्यवतीके साथ बैठा हुआ देखकर सत्य प्रमाणित हो गया है । यह सुनकर राजाने कहा कि आज उसका उपवास है, इसलिए उसका ऐसा करना भला कैसे सम्भव हो सकता है ? इसपर चपलगतिने कहा कि प्रत्यक्ष पदार्थमें भी क्या सन्देहके लिए स्थान रहता है ? अतएव इन दोनोंको दण्ड देना चाहिए। तब राजाने कहा कि तो फिर तुम ही उनको दण्डित करो। इसके लिए राजाको धन्यवाद देकर चपलगतिने विचार किया कि पहिले कुबेरप्रियके शिरको काटकर तत्पश्चात् सत्यवतीकी नाक काटूंगा। इस प्रकार सत्यवतीको बचाकर उस महान् अन्यायी कुबेरप्रियको कल प्रातःकालमें मार डालूँगा। इस प्रकार सोचता हुआ वह मायाबी कुबेरप्रियके रूपको धारण करनेवाले अपने भाईको साथ लेकर घर पहुँचा । फिर उसने भाईको वहीं छोड़कर श्मशानसे उस कुबेरप्रियको लाकर जब वहाँ स्थापित किया तब नगरके भीतर बहुत क्षोभ हुआ। इस उपसर्गके समय सेठने यह प्रतिज्ञा की कि यदि इस उपसर्गसे बच गया तो पाणिपात्रसे भोजन करूँगा- मुनि हो जाऊँगा। सत्यवती भी ऐसी ही प्रतिज्ञाके साथ अपने देवपूजागृह (चैत्यालय ) में कायोत्सर्गसे स्थित हो गई। उधर राजा दुखित होकर शय्याके ऊपर पड़ गया। प्रातःकालके होनेपर वह सेठ बालोंको खींचकर श्मशानमें ले जाया गया। उसको वहाँ बैठाकर चपलगतिने उसका शिर काटनेके लिए चण्ड नामके १. ब इयमंगुल्यां । २. ब चोपवेक्ष्येति [ चोपवेशयति ] । ३. ब धृत्वेऽयमंगुल्यो। ४. ब योपेक्षितस्तस्येदं । ५. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श प्रत्यक्षेर्थे संदेह । ६. बलुवनं। ७. श पुरक्षोभ्यो । ८. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श चण्डाधिपं मातंग । पब माज ह्वौ श माजुहाव । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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