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________________ १४० पुण्यात्रवकथाकोशम् [ ४-३, २८: चालयितुं न शक्ता। तं तत्रैव निधाय गृहीतब्रह्मचर्यव्रताहमिति । अहमपि तच्चित्तं गृहीतुं न शक्तेति महञ्चित्रमिति । राजा बभाण तत्संतानजाता एतद्विधा एवेति । . एकदोत्पलनेत्रया ब्रह्मचर्यव्रतं गृहीतमित्यजानन् चण्डपाशिकपुत्र आगत्य तैलाभ्यङ्गनं कुवेन्त्या जल्पन्नस्थात् । तावन्मन्त्रिपुत्रम् आगच्छन्तं दृष्ट्वा कुट्टिन्या तद्भयात्स मञ्जूषायां क्षिप्तः । मन्त्रिपुत्रस्तया जल्पन स्थितः। तावञ्चपलगतिमागच्छन्तं वीक्ष्य तद्भयात् सोऽपि तत्रैव निक्षिप्तः। चपलगतिना आगत्योक्तम्-हे उत्पलनेत्रे,शृङ्गारं विधाय तिष्ठ,अपराह्ने द्रव्येणागच्छामि । उत्पलनेत्रा उवाच-हे चपलगते, सत्यवतीविवाहदिने मम हारो विवाहानन्तरं दास्यामीति त्वयैव याचित्वा नीतस्तं प्रयच्छेति । तेनोक्तं प्रयच्छामि। तदा तयोक्तं मजूपान्तःस्थितदेवी युवामस्मिन्नर्थे साक्षिणाविति । द्वितीयदिने नृपास्थाने उत्पलनेत्रा चपलगति हारं ययाचे । सोऽवादीदहं न जानामि, कस्माद्दीयते । यदि न नयसि तर्हि ह्यः कथं दास्यामीति उक्तोऽसि । सोऽवोचन्नाब्रुवम् । राजाब्रूतः उत्पलनेत्रेऽस्मिन्नर्थे ते साक्षिणः सन्ति । तयोक्तं सन्ति । तर्हि तान् वादय । वादयामीत्युक्त्वा तत्रानीती मञ्जूषा । तदनु तयावादि हे मञ्जूषान्तःस्थितदेवौ, ह्यः चपलगतिनोक्तं यथोक्तं ब्रूतम् । ततस्ताभ्यां यथोक्तकर ब्रह्मचर्यव्रतको ग्रहण कर लिया । हे देव ! अनेकोंके चित्तको आकर्षित करनेवाली मैं भी उसके चित्तको चलित नहीं कर सकी, यही एक महान् आश्चर्यकी बात है । तव राजाने कहा कि उसकी वंशपरम्परामें उत्पन्न होनेवाले महापुरुष इसी प्रकार दृढ़ होते हैं। एक दिन 'उत्पलनेत्राने ब्रह्मचर्यको ग्रहण कर लिया है' इस बातको न जानकर उसके यहाँ कोतवालका पुत्र आया। तब वह तेलकी मालिश कर रही थी। वह उसके साथ वार्तालाप करते हुए वहाँ ठहर गया। इतनेमें वहाँ मन्त्रीके पुत्रको आता हुआ देखकर उसके भयसे चपलनेत्राने कोतवालके पुत्रको पेटीके भीतर बैठा दिया । उधर मन्त्रीका पुत्र उसके साथ बातचीत कर रहा था कि इतने में वहाँ चपलगति भी आ पहुँचा। उसे आते हुए देखकर उत्पलनेत्राने उस मन्त्रीके पुत्रको भी उसी पेटीके भीतर बन्द कर दिया। चपलगतिने आकर कहा कि हे उत्पलनेत्रे ! तू शृंगारको करके बैठ, मैं अपराहृमें धन लेकर आता हूँ। इसपर उत्पलनेत्राने उससे कहा कि हे चपलगते ! तुमने सत्यवतीके विवाहके अवसरपर मेरे हारको ले जा करके यह कहा था कि मैं इसे विवाह हो जानेपर वापिस दे दूँगा । इस प्रकार जो तुम उस हारको मांगकर ले गये थे उसे अब मुझे वापिस दे दो। यह सुनकर चपलगतिने कहा कि अभी उसे वापिस दे जाता हूँ। तब उत्पलनेत्रा बोली कि हे पेटीके भीतर स्थित दोनों देवताओ ! इस विषयमें तुम दोनों साक्षी हो । दूसरे दिन उत्पलनेत्राने राजसभामें उपस्थित होकर जब चपलगतिसे उस हारको मांगा तब उसने कहा कि मुझे उसका पता भी नहीं है, मैं उसे कहाँ से दूँ ? इसपर चपलनेत्रा बोली कि यदि तुम नहीं जानते हो तो फिर तुमने कल यह किसलिए कहा था कि मैं उसे वापिस दे दूंगा ? यह सुनकर चपलगति बोला कि मैंने तो ऐसा कभी नहीं कहा। इसपर राजा बोला कि हे उत्पलनेत्रे ! इस विषयमें क्या कोई तुम्हारे साक्षी भी हैं ? उसने उत्तर दिया कि हाँ, इसके लिए साक्षी भी हैं। तो फिर उन्हें संदेश देकर बुलवाओ, इस प्रकार राजाके कहनेपर उत्पलनेत्रा बोली कि अच्छा उन्हें बुलवाती हूँ। यह कहते हुए उसने उस पेटीको वहाँ मंगा लिया। तत्पश्चात् वह बोली कि हे १. ब मंत्रितनुजस्तया। २. प फ श नानयसि । ३. ब 'ते' नास्ति । ४. फ बाह्वय आह्वयामीत्युक्ता तत्रानीत । ५. ब तथोक्तं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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