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________________ १३९ : ४-३, २८ ] ४. शीलफलम् ३ महारागिणावपि शोलेन सुरमहितौ तौ बभूवतुरन्यः किं न स्यादिति ॥१-२॥ [२८] श्रेष्ठी कुबेरप्रियनामधेयः पूजां मनोशां त्रिदशैः समाप । रूपाधिकः कर्मरिपुः से शीलाच्छीलं ततोऽहं खलु पालयामि ॥३॥ अस्य कथा- जम्बूद्वीपपूर्वविदेहे पुष्कलावतीविषये पुण्डरीकिण्यां राजा गुणपालो राशी कुबेरश्रीः पुत्री वसुपालश्रीपालौ । देवीभ्राता राजश्रेष्ठी कुबेरप्रियोऽनङ्गाकारश्चरमाङ्गः । राज्ञः प्रिया कापि सत्यवती, तद्भाता चपलगतिर्महामन्त्री। एकदा राजाऽपूर्वनाटकावलोकाधृष्टः स्वकिंकरी विलासिनीमुत्पलनेत्रामपृच्छत् ईदृग्विधं कौतुकावहं नाटकं मम राज्ये एव जातमिति । तयाभाणीदं कौतुकं न भवति । किं तु मया यद् दृष्टं कौतुकं तद्वच्मि । देव, एकदाहं तवास्थानस्थं कुबेरप्रियं विलोक्य कामबाणजर्जरितान्तःकरणाऽभवम् । तदनु तदन्तिकं दूतिकां प्रास्थापयम् । तया मत्स्वरूपे निरूपिते सोऽवोचत् एकपत्नीवतमस्तीति । ततस्तं चतुर्दश्यां श्मशाने प्रतिमायोगेन स्थितमानाययं शय्यागृहेऽनेकस्त्रीविकारैस्तश्चित्तं प्रभावसे देवोंसे पूजित हुए हैं तब निर्ग्रन्थ व वीतराग भव्य जीव क्या न प्राप्त करेगा ? वह तो मोक्षके भी सुखको प्राप्त कर सकता है ॥२॥ अतिशय सुन्दर और कर्मोंका शत्रु वह कुबेरप्रिय नामका सेठ शीलके प्रभावसे देवोंके द्वारा की गई मनोज्ञ पूजाको प्राप्त हुआ है। इसीलिए मैं उस शीलका परिपालन करता हूँ ॥३॥ इसकी कथा इस प्रकार है- जम्बूद्वीपके पूर्व विदेहमें पुष्कलावती नामका देश है। उसमें स्थित पुण्डरीकिणी नगरीमें गुणपाल नामका राजा राज्य करता था। रानीका नाम कुबेरश्री था। इनके वसुपाल और श्रीपाल नामके दो पुत्र थे। रानीके एक कुबेरप्रिय नामका भाई था जो राजसेठके पदपर प्रतिष्ठित था । वह कामदेवके समान सुन्दर व चरमशरीरी था। कोई सत्यवती नामकी रमणी राजाकी वल्लभा थी। सत्यवतीके एक चपलगति नामका भाई था जो महामन्त्रीके पदपर प्रतिष्ठित था। एक दिन राजा गुणपालके लिए अपूर्व नाटकको देखकर बहुत हर्ष हुआ। तब उसने अपनी दासी उत्पलनेत्रा नामकी वेश्यासे पूछा कि इस प्रकारके कौतुकको उत्पन्न करनेवाला नाटक • मेरे राज्यमें ही सम्पन्न हुआ है न ? इसके उत्तरमें उत्पलनेत्राने कहा कि यह कुछ भी आश्चर्यकी बात नहीं है । किन्तु मैंने जो आश्चर्यजनक दृश्य देखा है उसे कहती हूँ, सुनिए । हे राजन् ! एक दिन आपके सभाभवनमें स्थित कुबेरप्रियको देखकर मेरा मन काम-बाणसे अतिशय पीड़ित हो गया था। इसलिए मैंने उसके पास अपनी दूतीको भेजा। उसने जाकर मेरा संदेशा सेठसे कहा। उसे सुनकर सेठने मेरी प्रार्थनाको अस्वीकार करते हुए कहा कि मैंने एक-पत्नीव्रतको ग्रहण किया है। तत्पश्चात् वह चतुर्दशीके दिन जब श्मशानमें प्रतिमायोगसे स्थित था उस समय मैंने उसे अपने यहाँ उठवा लिया। फिर मैंने उसे शयनागारमें ले जाकर उसके चित्तको विचलित करनेके लिए स्त्री-सुलभ अनेक प्रकारकी कामोत्पादक चेष्टाएँ की। फिर भी मैं उसके चित्तको विचलित नहीं कर सकी। तब मैंने उसे वहींपर पहुँचा १.फ सु । २. प फ श नंगाकारकश्चरमांगः । ३. ब प्रिया परापि। ४. प नाटकालाद्धृष्टः, श नाटकालोकाद्धृष्टः । ५. प श मया दृष्टं फ मया यदृष्टं । ६.फ प्रस्थापयंतया ब प्रस्थापयंस्तया । ७. फ योगस्थितमानाय शय्या । ८. ब प्रतिपाठोऽयम । श°नेकविकार। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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