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________________ पुण्यात्र कथाकोशम् [ ३-८, २५ कीर्तिधरोऽभत्-तन्वि उदरं मा ताडय, अत्रोषितस्य नन्दनस्योपद्रवः स्यादिति । राजाभगदेतद्गर्भे किं पुत्रोऽस्ति । मुनिरुवाचास्ति । ततो राशोक्तमहो जना अस्माकं राजा reat दुःखं मा कार्षीः, चित्रमालागर्भस्थो बालो युष्माकं राजेति भणित्वा गर्भस्य पट्टबन्धं कृत्वा दीक्षितः सकलागमधरो भूत्वा गुरुणा सह तपः करोति । एकदा एकस्मिन् पर्वते वृक्षतले वर्षाकालेचातुर्मासिकप्रतिमायोगं दधानें प्रतिज्ञावसाने सुकोशलमुनिर्मार्गशुद्धिपरीक्षणार्थे" यावद् गच्छति तावन्माता सहदेवी तदार्तेन मृत्वा तत्रादव्यां व्याघ्री बभूव । त बुभुक्षितां रौद्राकारां संमुखमागच्छन्तीं विलोक्य स मुनिर्ध्यानेनास्थात् । तया भक्षणे समुत्पन्न केवलोऽन्तर्मुहूर्ते मोक्षमुपजगाम । जय जय सुकोशलमुने तिर्यगुपसर्गे सहित्वा साधितमोक्षेऽतिदेवनिनादात्परिनिर्वाणपूजाविधाने तत्तूर्यनिनादाच्च तदुपसर्ग मोक्षगति च विबुध्य कीर्तिधरो मुनिस्तन्निर्वाणभूमिमागत्य तत्स्तुतिं परिनिर्वाणक्रियां चकार । तदनु व्याघ्रीं विलोक्योक्तवान्- हे सह देवि, पूर्व सुकोशलस्य कुङ्कुमारुणितं कक्षादिकं वीक्ष्य हा पुत्र, मिति रुधिरं निर्गतमिति विजल्प्य मूर्छितासि । सा त्वं तदार्तेन मृत्वा व्याघ्री भूत्वा तमेव भक्षितवतीति । तदाकर्ण्य जातिस्मरा जाता । पश्चात्तापेन शिलायां स्वशिरस्ताडयन्ती मुनिना १३.६ "कीर्तिधर मुनि बोले कि हे पुत्री ! तू इस प्रकारसे उदरको ताडित मत कर, ऐसा करने से उदरस्थ बालकको बाधा पहुँचेगी। यह सुनकर सुकोशलने पूछा कि क्या इसके गर्भ में पुत्र है ? मुनिने उत्तर दिया कि हाँ, इसके गर्भ में पुत्र है । तब सुकोशलने कहा कि हे प्रजाजनो ! तुम 'हमारा कोई राजा नहीं है' यह विचार करके दुखी मत होओ। चित्रमाला के गर्भ में जो पुत्र है वह तुम्हारा राजा है, यह कहकर उसने गर्भस्थ बालकको पट्ट बाँध करके दीक्षा ग्रहण कर ली । तत्पश्चात् वह समस्त श्रुतका पारगामी होकर गुरुके साथ तप करने लगा । इसी बीच में वर्षाकालके प्राप्त होनेपर उसने एक पर्वतके ऊपर किसी वृक्ष के नीचे चातुर्मासिक प्रतिमा योगको धारण किया । तत्पश्चात् प्रतिज्ञा के समाप्त हो जानेपर सुकोशल मुनि जब तक मार्गशुद्धिकी परीक्षा के लिए जाते हैं तब तक उनकी माता सहदेवी, जो उसके आर्तध्यानसे मरकर उसी वनमें व्याघ्री हुई थी, उस भूखी भयानक व्याघ्रीको सम्मुख आती देखकर वे मुनि ध्यानमें स्थित हो गये । तब उस व्याघ्रीने उनका भक्षण करना प्रारम्भ कर दिया । इसी समय उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ और वे अन्तमुहूर्त में मुक्तिको प्राप्त हो गये । उस समय हे सुकोशल मुने ! हे तिर्यञ्चकृत उपद्रवको सहकर मोक्षको सिद्ध करनेवाले ! आपकी जय हो, जय हो; इस प्रकार देवोंके शब्दों से दिशाएँ मुखरित हो उठी थीं। इसके अतिरिक्त उनके द्वारा निर्वाणके उपलक्ष्यमें किये गये पूजामहोत्सव के समय में बजते हुए बाजों का जो गम्भीर शब्द हुआ था उससे भी सुकोशल मुनिके उपसर्गको सहकर मुक्त होने के समाचारको ज्ञात करके कीर्तिधर मुनि उनके निर्वाणस्थान में आये । वहाँ उन्होंने उनकी स्तुति करते हुए निर्वाणक्रियाको सम्पन्न किया । तत्पश्चात् वे उस व्याघ्रीको देखकर बोले कि हे सहदेवी ! पहिले तू सुकोशलकी काँख आदिको कुंकुमसे लाल देखकर ' हा पुत्र ! यह रुधिर कैसे निकला' कहकर मूच्छित हो जाती थी । उसी तूने उसके आर्तध्यानसे मरकर इस व्याघ्रीकी अवस्थामें उसे ही खा डाला है । मुनिके इन वचनोंको सुनकर उस व्याघ्रीको जातिस्मरण हो १. फश नन्दनोपद्रवः । २. शमा कार्य । ३. फ वर्षाकाले । ४. ब दधाते । ५. पश मार्ग परीक्षणार्थं । ६. ब व्याघ्री संपन्ना तां । ७. फ श रौद्राकारं । ८. श केवलान्त । ९. फ मोक्ष ! इति । १०. श तत्तूर्यनिनादाश्च । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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