SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ : ४, १-२, २६-२७ ] ४. शीलफलम् १-२ १३७ परमागमकथनेन संबोधिता सम्यक्त्वपूर्वकम गुव्रतानि संन्यासं च जग्राह । तनुं विहाय सौधर्मे देवोऽतिभोगाधिकों बभूव । एवं मुनिघातिकाया व्याघ्रया अपि तदुपयोगेनैवंविधं फलं जातं संयतस्य किं प्रष्टव्यमिति ॥ ८ ॥ श्रीकीर्ति चारुमूर्ति प्रबलगुणगणं वर्णभोगोपभोगं सौभाग्यं दीर्घमायुर्वरकरणगुणान् पूज्यतां लोकमध्ये | विज्ञानं सार्वभावं कलिलविगमजं सौख्यमैश्यं विशुद्धं लब्ध्वान्ते सिद्धिलाभं भजति पठति यो दिव्यधन्याष्टकं सः ॥ इति पुण्यास्रवामिधानग्रन्थे केशवनन्दिदिव्यमुनिशिष्य रामचन्द्रमुमुक्षुविरचिते श्रुतोपयोगफल व्यावर्णनाष्टकं समाप्तम् ॥ श्रीः ॥ ३॥ 3 [ २६-२७ ] मेघेश्वरो नाम नराधिनाथो लेभे सुपूजामिह नाकजेभ्यः । शीलप्रभावाज्जिनभक्तियुक्तः शीलं ततोऽहं खलु पालयामि ॥ १ ॥ विख्यातरूपा हि सुलोचनाख्या कान्ता जयाख्यस्य नृपस्य मुख्या । देवेशपूजां लभते स्म शीलात् शीलं ततोऽहं खलु पालयामि ॥ २ ॥ अनयोर्वृत्तयोरेकैव कथा तथा हि- सौधर्मेन्द्रों निजसभायां व्रतशीलस्वरूपं गया । तब वह पश्चात्ताप करती हुई अपने शिरको पत्थरपर पटकने लगी। उस समय मुनिराजने उसे आगमके उपदेशसे सम्बोधित किया । उसमें उपयोग लगाकर उसने सम्यग्दर्शनपूर्वक अणुSarat ग्रहण कर लिया । अन्तमें वह सन्यास के साथ शरीरको छोड़कर सौधर्म स्वर्ग में अतिशय भोगोंका भोक्ता देव हुई इस प्रकार मुनिका घात करनेवाली उस व्याघ्रीको भी जब धर्मोपदेशमें मन लगानेसे इस प्रकारका फल प्राप्त हुआ है तब संयत जीवका क्या पूछना है ? उसे तो उत्कृष्ट फल प्राप्त होगा ही ॥८॥ । जो भव्य जीव इस दिव्य धन्याष्टक ( जिनागमश्रवणसे प्राप्त फलके निरूपण करनेवाले इस श्रेष्ठ आठ कथामय प्रकरण ) को पढ़ता है वह निर्मल कीर्ति, सुन्दर शरीर, उत्तम गुणसमूह, पूशस्त वर्णादि रूप भोगोपभोग, सौभाग्य, दीर्घ आयु, उत्तम इन्द्रियविषय, लोकमें पूज्यता, समस्त पदार्थोंका ज्ञान (सर्वज्ञता ), कर्ममलके नाशसे होनेवाले निर्मल सुख और विशुद्ध आधिपत्यंको प्राप्त करके अन्तमें मोक्षसुखका अनुभव करता है । इस प्रकार केशवनन्दी दिव्य मुनिके शिष्य रामचन्द्र मुमुक्षु-द्वारा विरचित पुण्यास्रव नामक ग्रन्थमें श्रुतोपयोगके फलको बतलानेवाला यह अष्टक समाप्त हुआ ||३|| के जिन भगवान्का भक्त मेघेश्वर ( जयकुमार ) नामक राजा यहाँ शीलके प्रभाव से देवोंद्वारा की गई पूजाको प्राप्त हुआ है । इसीलिए मैं उस शीलका परिपालन करता हूँ ॥१॥ इस जयकुमार राजाकी सुलोचना नामकी सुप्रसिद्ध रूपवती मुख्य पत्नी शीलके प्रभावसे देवेन्द्रकृत पूजाको प्राप्त हुई है । इसीलिए मैं उस शीलका परिपालन करता हूँ ॥ २ ॥ इन दोनों पद्यों की कथा एक ही है जो इस प्रकार है- किसी समय सौधर्म इन्द्र अपनी १. शतिभोगादिको । २. पशिक्षश सिक्ष । ३. प श 'मुमुक्षु' नास्ति । ४ प व्यावर्णः नामाष्टकं समाप्तः फ व्यथावर्णनोऽष्टकं समाप्तः श व्यावर्णनामाष्टकं समाप्तं । Jain Education Internal For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy