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________________ : ३-८, २५ ] ३. श्रुतोपयोगफलम् १३५ सूर्यग्रहणं विलोक्य निर्विण्णस्तपोऽर्थ गच्छन् प्रधानैः संतत्यभावान्निवारितः कियन्ति दिनानि राज्यं कुर्वन्नस्थात् । सहदेवी स्वस्यं गर्भसंभूतौ तद्दीक्षाभयाद् गूढवृत्त्या भूमिगृहे पुत्रं प्रासूत । तद्गृथवस्त्रं प्रक्षालयन्त्याश्चेटिकाया विबुध्य विप्रेण वेणुबद्धध्वजहस्तेन भूपाय निवेदिते तद्वृत्ते राजा तस्मै तनुजाय राज्यं दत्त्वा विप्राय द्रव्यं च निष्क्रान्तः । बालः सुकोशलाभिधानेन प्रवृद्धो महामण्डलेश्वरोऽभूत् । सोऽपि मुनेर्दर्शनेन तपो ग्रहीष्यतीत्यादेशभयात्पुरे मुनिसंचारो मात्रा वारितः । एकदा भुक्तोत्तरं सुकोशलो मात्रा समं हर्म्यस्योपरिभूमावु पविश्य दिशोऽवलोकयन्नस्थात् । तदवसरे कीर्तिधरो मुनिश्वर्यार्थ तत्पुरं प्रविष्टोऽम्बिकया विलोक्य प्रतिहारेण यापितः गच्छतस्तस्यापरभाग ददर्श राजा कोऽयमित्यपृच्छच्च । मात्रोदितं रङ्कोऽयं न द्रष्टव्यं इति तच्छ्रुत्वा सुकोसलधात्री वसन्तमालाऽरोदीत् । तां विलोक्य राजा पृष्टवान् । तयोक्तं तवं पितायं महातपस्वी रङ्को भणित इति रोदिमि । तदनु भूपस्तद्गति में, नान्येत्युद्याने स्थितस्यान्तिकं गतः, अन्तःपुरादिपरिवारोऽपि । भो भो मुने मां दीक्षां देहि मां दीक्षां देहीति भणन् तत्र गतः । उदरमाताडय रुदन्तीं तद्देवीं चित्रमालां ८ रानीका नाम सहदेवी था । एक दिन राजा सभा भवन में बैठा हुआ था । उस समय उसे सूर्यग्रहणको देखकर वैराग्य उत्पन्न हुआ । तब वह दीक्षा लेनेके लिए उद्यत हो गया । परन्तु सन्तान के न होने से मन्त्रियोंने उससे कुछ दिन और रुक जाने की प्रार्थना की। तदनुसार उसने कुछ दिन तक और भी राज्य किया । इस बीचमें कीर्तिधर की पत्नी सहदेवीके गर्भाधान हुआ। समयानुसार उसने राजाके दीक्षा ले लेनेके भय से गुप्तरूप से पुत्रको तलघर में जन्म दिया। सहदेवी के रुधिरादियुक्त मलिन वस्त्रों को धोती हुई दासीसे ज्ञात करके किसी ब्राह्मणने बाँसमें बँधी हुई ध्वजाको हाथमें ले जाकर राजासे पुत्र जन्मका वृत्तान्त कह दिया । इसे सुनकर राजाने उस पुत्रके लिए राज्य तथा ब्राह्मणके लिए द्रव्य देकर दीक्षा ग्रहण कर ली । बालकका नाम सुकोशल रखा गया । वह क्रमशः वृद्धिंगत होकर महामण्डलेश्वर हो गया । पुत्र भी मुनिका दर्शन होनेपर दीक्षा ग्रहण कर लेगा, इस प्रकार मुनिके कहने पर माता के हृदयमें जो भयका संचार हुआ था उससे सहदेवीने नगरमें मुनिके आगमनको रोक दिया था। एक दिन सुकोशल भोजन करनेके पश्चात् माताके साथ भवनके ऊपर बैठा हुआ दिशाओंका अवलोकन कर रहा था । इसी समय कीर्तिधर मुनि आहारके निमित्त उस नगर में प्रविष्ट हुए । परन्तु सुकोशलकी माताने उन्हें देखकर द्वारपालके द्वारा हटवा दिया । तब सुकोशलने जाते हुए उन मुनिराजके पृष्ठ भागको देखकर पूछा कि यह कौन है ? इसके उत्तर में माता ने कहा कि वह रंक ( दरिद्र ) है, उसे देखना योग्य नहीं है । इस बातको सुनकर सुकोशलकी धाय वसन्तमाला रो पड़ी। तब सुकोशलने उसे रोती देखकर उससे रोनेका कारण पूछा । इसपर धायने कहा कि यह महातपस्वी तुम्हारा पिता है, जिसे कि तुम्हारी माता रंक कहती है । यही सुनकर मैं रो रही हूँ। यह सब ज्ञात करके सुकोशलने सोचा कि जो अवस्था उनकी है वही मेरी होगी, और दूसरी नहीं हो सकती । यही विचार करके वह अन्तःपुर आदि परिवार के साथ उद्यानमें विराजमान उन मुनिराजके पास जा पहुँचा, वहाँ पहुँचकर उसने कहा कि हे मुनिराज ! मुझे दीक्षा दीजिए, मुझे दीक्षा दीजिए। इधर सुकोशलकी पत्नी चित्रमाला उसके दीक्षा ग्रहणसे पेटको ताड़ित करके रुदन कर रही थी । उसे इस प्रकारसे रोती हुई देखकर १. फ अतः प्राक् 'महादेवी' इत्यधिकं पदमस्ति । २. प श सहदेवीस्तस्य । ३ ब तद्वृत्तौ । ४. श हर्योपरि । ५. ब कीर्तिधरोपि । ६. ब पृष्टव्य । ७. ब राज्ञा पृष्टयोदितं तव । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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