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________________ १३४ पुण्यात्रकथाकोशम् [ ३-७, २४ : मागतो, क्षेत्रपालेन कीलितौ । प्रातः सर्वैर्निन्दितौ पितृभ्यां मोचितौ राशा च रक्षितौ श्रावकत्वं प्रपन्नौ समाधिना सौधर्ममितौ । ततोऽयोध्यायां श्रेष्ठिसमुद्रदत्तधारिण्योस्तनुजौ युवां जातौ । तौ विप्रभवपितरौ नानायोनिषु भ्रमित्वा चाण्डालशुन्यौ जाते इति मोहकारणम् । तनिशम्य' 'तौ ताभ्यां जिनवचनामृतपानेन प्रीणितौ गृहीताणुव्रतसंन्यसनौ च श्वपाको मासेन वितनुर्भूत्वाच्युते नन्दीश्वरनामा महर्द्धिको देवो बभूव । शुनी तन्नगरेशभूपालतनुजा रूपवती जाता । तत्स्वयंवरे तेन देवेन संबोध्य प्रवाजितो समाधिना दिवि देवोऽजनि । एवं चण्डालोऽपि सकृज्जिनवचनभावनया देवोऽभूदन्यस्य किं प्रष्टव्यम् ॥७॥ [ २५ ] श्रारण्ये मुनिघातिका च समदा व्याघ्री धरित्रीभया कल्पावास मगादनूनविभवं श्रीदिव्यदेहोदयम् । किं मन्ये मुनिभाषितादनुपमादन्यस्य भव्यस्य हो धन्योऽहं जिनदेवकः सुचरणस्तत्प्राप्तितो भूतले ||८|| अस्य कथा - - अत्रैवायोध्यायां राजा कीर्तिधरो राशी सहदेवी । राजैकदास्थानस्थः क्रोध हुआ । इससे वे रातमें मुनिका घात करने के लिए आये । परन्तु क्षेत्रपालने उन्हें वैसा ही कीलित कर दिया । प्रातः काल होनेपर जब सब लोगोंने उन्हें वैसा स्थित देखा तो सभीने उन दोनों की बहुत निन्दा की । तत्पश्चात् माता-पिता ने उन दोनोंको मुक्त कराया और राजाने भी उन्हें जीवितदान दे दिया । फिर वे श्रावकके व्रतको ग्रहण करके समाधिपूर्वक मृत्युको प्राप्त होते हुए सौधर्म स्वर्ग में देव हुए । वहाँसे च्युत होकर तुम दोनों अयोध्या में सेठ समुद्रदत्त और धारिणी के पुत्र हुए हो। तुम्हारे ब्राह्मणभवके वे माता-पिता अनेक योनियों में परिभ्रमण करके चाण्डाल और कुत्ती हुए हैं । इसीलिए उन्हें देखकर तुम दोनोंको मोह उत्पन्न हुआ है । इस प्रकार मोहके कारणको सुन करके पूर्णभद्र और मणिभद्रने उन दोनोंको जिनवचनरूप अमृतका पान कराकर प्रसन्न किया । इस धर्मोपदेशको सुनकर चाण्डाल और उस कुत्तीने अणुव्रतोंको धारण कर लिया । अन्तमें समाधिपूर्वक एक मासमें मरणको प्राप्त होकर वह चाण्डाल तो अच्युत स्वर्ग में नन्दीश्वर नामक महर्धिकदेव हुआ और वह कुत्ती उसी नगरके भूपाल राजाकी रूपवती पुत्री हुई । उसने स्वयंवर के समय में उक्त देवसे सम्बोधित होकर दीक्षा ग्रहण कर ली । फिर वह समाधिपूर्वक मरणको प्राप्त होकर स्वर्ग में देव उत्पन्न हुई । इस प्रकार वह चाण्डाल भी एक बार जिनवचनकी भावना से जब देव हुआ है तब फिर अन्य कुलीन भव्य जीवका क्या कहना है ? वह तो उत्तम ऋद्धिको प्राप्त होगा ही ||७|| जिस व्याधीने गर्वित होकर वनमें मुनिका घात किया था तथा जो पृथिवीको भी भय उत्पन्न करनेवाली थी वह जब मुनिके अनुपम उपदेशको सुनकर विपुल वैभवके साथ दिव्य शरीरको प्राप्त करानेवाले स्वर्गको प्राप्त हुई है तब भला अन्य भव्य जीवके विषय में क्या कहा जाय ? अर्थात् वह तो स्वर्ग-मोक्ष के सुखको प्राप्त होगा ही । इसी कारण जिन भगवान्की भक्ति करनेवाला मैं उस धर्मकी प्राप्तिसे निर्मल चारित्रको धारण करता हुआ इस पृथिवीतलके ऊपर कृतार्थ होता हूँ ॥ ८ ॥ इसकी कथा इस प्रकार है - इसी अयोध्यापुरीमें कीर्तिधर नामका राजा राज्य करता था । १. ब तं मारयंत्तौ क्षेत्र । २. व चांडालपुत्र्यौ जातौ । ३ ब - प्रतिपाठोऽयम् । श मोहकारणं निशम्य । ४. श सन्यासनी । ५. प श प्रव्रजिता । ६. व दन्यस्य ततः किं । ७. ब अरण्ये । ८. प श घातका । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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