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________________ पुण्यामकथा कोश [ ३-४, २१-२२: ततोऽन्यस्मिन् प्रदेशे शूले प्रोतं पुरुषमीक्षांचकेऽप्रातीच्च पितरं 'किमर्थमयं निगृह्यते' इति सोऽवदन्मया न ज्ञायते, चण्डकर्माणं पृच्छामीत्यपृच्छत् । स आह । श्रत्र राजश्रेष्ठी वसुदत्तो भार्या वसुमती पुत्री वसुकान्ता । कन्यातिरूपवती युवतिश्च । सा एकदा सर्पदष्टा मृतेति श्मशानं दग्धुं नीता । चितारोपणावसरेऽनेकदेशान् परिभ्रमन् वणिग्नन्दनो गरुडनाभिनामा महागारुडी तत्र प्राप्तस्तत्स्वरूपमवबुध्यावादीद्यदीमां मह्यं दास्यति तर्हि जीवयामीति । तत्स्वरूपं विचार्य श्रेष्ठी बभाण - दास्यामि जीवयेति । तेनाभाणि 'प्रातर्निर्विषां करोमि, रात्रावस्या अत्रैव यत्नः कर्तव्यः' इति । ततः श्रेष्ठी सहस्रं सहस्रं दीनाराणामेकैकस्मिन् कर्पटे बबन्धेति । ततश्चत्वारोऽपि पोट्टलकानेकस्मि नेव कर्पटे बद्ध्वा तद्विमाननिकटे धृत्वा चतुर्णा भटानामवदत् हे भटाः, इमां रात्रौ यत्नेन रक्षकस्मै सहस्र- सहस्रद्रव्यं दास्यामि । ततश्चत्वारोऽपि रक्षन्तः स्थिताः । अभ्ये जनाः स्वस्थानं जग्मुः । द्वितीयदिने तेनोत्थापिता सा । श्रेष्ठिना तस्मै दत्ता सा । चतुः स्वर्णपोट्टलकमध्ये त्रय एव स्थिताः । श्रेष्ठिनाभाणि - येन स गृहीतस्तस्य स प्राप्तः, अन्ये ११० वहाँ से आगे जाते हुए दूसरे स्थानमें नागश्रीने शूलीके ऊपर चढ़ाये गये एक पुरुषको देखकर अपने पिता से पूछा कि इसे यह दण्ड क्यों दिया गया है ? नागशर्मा बोला कि मुझे ज्ञात नहीं हैं, चलकर चण्डकर्मासे पूछता हूँ । तदनुसार उसके पूछनेपर चण्डकर्मा बोलाइसी नगर में एक वसुदत्त नामका राजसेठ रहता है । उसकी पत्नीका नाम वसुमती है । इनके वसुदत्ता नामकी एक पुत्री है । वह अतिशय सुन्दर व युवती है । उसे एक दिन सर्पने काट लिया था । तब उसे मर गई जानकर जलानेके लिये श्मशान में ले गये । वहाँ उसे चिताके ऊपर रखा ही था कि इतने में अनेक देशोंमें परिभ्रमण करता हुआ एक गरुड़नाभि नामका वणिक पुत्र आया । वह गरुड़ विद्या में निपुण था । उसे जब यह ज्ञात हुआ कि इसे सर्पने काट लिया है तब वह बोला कि यदि तुम मेरे लिये देते हो तो मैं इसे जीवित कर देता हूँ । तब तद्विषयक जानकारी प्राप्त करके सेठने उससे कहा कि ठीक है, मैं इस पुत्रीको तुम्हारे लिये दे दूँगा, तुम इसे जीवित कर दो। यह सुनकर गरुड़नाभिने कहा कि मैं इसे प्रातः काल में विषसे रहित कर दूँगा, रात्रिमें यहाँपर ही इसके रक्षणका प्रयत्न कीजिये । तब सेठने एक एक कपड़े में एक एक हजार दीनारें बाँधकर उनकी चार पोटरी बनाई। फिर उन चारों ही पोटरियोंको एक कपड़े में बाँधकर उसे उसने पुत्रीके विमानके पास रख दिया । तत्पश्चात् उसने चार सुभटोंको बुलाकर उनसे कहा कि हे वीरो ! तुम रात्रि में यहाँ इस पुत्रीकी रक्षा करो, मैं तुम लोगोंमेंसे प्रत्येकको एक एक हजार दीनार दूँगा । सेठके कथनानुसार वे चारों उसकी रक्षा करते हुए वहाँ स्थित रहे और शेष सब अपने अपने घरको चले गये । दूसरे दिन गरुड़नाभिने उसे विषसे रहित करके उठा दिया । तब सेठने पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार उस पुत्रीको गरुड़नाभिके लिए प्रदान कर दिया । उधर उन चार सुवर्णकी पोटरियोंमें से तीन ही वहाँ स्थित थीं । यह देखकर सेठने कहा जिसने उस पोटरी को लिया है उसे तो वह मिल ही गई है, दूसरे तीन इन पोटरियों को ले लो । इसपर १. श रूपवती युवति रूपवती युवतिश्च । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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