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________________ : ३-४, २१-२२ ] ३. श्रुतोपयोगफलम् ४ १०९ पुत्रि, अस्य चन्द्रवाहनस्योपरि समस्तबलेनागत्य वज्रवीर्यनामा राजा देशसीमाय स्थित्वा एतदन्तिकं दूतं प्रेषितवान् । तेनागत्य राजा विज्ञप्तः- हे राजन, मत्स्वामिनादिष्टमवधारय । कथम् । भत्सेवा कर्तव्या, नोचेद्रणरङ्गे स्थातव्यमेतदपि नोचेच्चम्पापुरं दातव्यमिति । चन्द्रवाहनो रण एव तिष्ठामोति भणित्वा दूतं विससर्ज । तदनु बलनामानं सेनापतिं बहुबलेन तस्योपरि प्रेषितवान् । स चागमत् । उभयोर्बलयोर्महायुद्धे सत्ययं राशोऽङ्गरक्षकस्तक्षकनामा भीत्या पलाय्यागत्य राज्ञः कथितवान् देव, वज्रवीर्यश्चमूपतिं हतवान् हस्त्यादिकं गृहीतवानिति निशम्य राजा विषण्णोऽभूत् । इतः संग्रामे बलो विपक्षं बबन्ध गृहीत्वागतवांश्च । तदागमनाडम्बरं वोच्य राजा विपक्ष एवायमिति मत्वा संनद्धो भूत्वा दुर्गस्य प्रतोलीदपितवान् दुर्गस्योपरि वीरान् व्यवस्थाप्य स्वयं हस्तिनं चटित्वाऽस्थात् । तथाविधं राज्ञो व्यग्रत्वमवेदय' बलः प्रकटोभूय प्रतोलीरुद्घाटयति स्म, राजानं दृष्टवान् । राजा वज्रवीर्य विमुच्य परिधानं दत्त्वा तद्देशं तस्य दापितवान् । अनु सुखेनास्थादद्यैतदसत्यं भाषितं स्मृत्वेमां शास्ति निरूपितवान् इति । नागश्रियोक्तमसत्यनिवृत्तिर्मया तदन्तिके गृहीता कथं त्यज्यते इति । पुरोहितोऽभाणीदिदमप्यास्तामन्यानि समर्पयावश्चलेति ॥ २ ॥ राजा के ऊपर आक्रमण करने के लिये वज्रवीर्य नामक राजा समस्त सेना के साथ आकर उसके देशकी सीमा पर स्थित हो गया । पश्चात् उसने चन्द्रवाहनके पास एक दूतको भेजा । दूतने आकर राजासे निवेदन किया कि हे राजन् ! मेरे स्वामीने जो आपके लिये आदेश दिया है उसके ऊपर विचार कीजिये । उनका आदेश है कि तुम मेरी सेवाको स्वीकार करो, यदि यह स्वीकार नहीं है तो फिर युद्धभूमिमें आकर स्थित होओ, और यदि यह भी स्वीकार नहीं है तो चम्पापुरको मेरे स्वाधीन करो । यह सुनकर चन्द्रवाहनने कहा कि ठीक है, मैं रणभूमिमें ही आकर स्थित होता हूँ । यह कहते हुए उसने उस दूतको वापिस कर दिया । तत्पश्चात् उसने अपने बल नामक सेनापतिको बहुत-सी सेना के साथ वज्रचीर्यके ऊपर आक्रमण करनेके लिये भेज दिया । उसके पहुँच जानेपर दोनों ओर की सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ । उनमें युद्ध चल ही रहा था कि राजाका यह तक्षक नामका अंगरक्षक भयभीत होकर रणभूमिसे भाग आया । इसने राजाके पास आकर उससे कहा कि हे देव ! वज्रवीर्यने सेनापतिको मारकर हाथी, घोड़े आदि सबको अपने अधिकारमें ले लिया है । यह सुनकर राजाको बहुत खेद हुआ। उधर बल सेनापतिने युद्धमें शत्रुको बाँध लिया था । वह उसको लेकर चन्द्रवाहनके पास आया। उसके आनेके ठाट बाटको देखकर राजाको सन्देह हुआ कि यह शत्रु आ रहा है । इसलिए उसने युद्ध के लिये तैयार होकर किलेके द्वारोंको बन्द करा दिया । साथ ही वह किले के ऊपर सुभटोंको स्थापित करके स्वयं हाथीके ऊपर चढ़कर स्थित हुआ । चन्द्रवाहनकी वैसी उद्विग्नताको देखकर बलने प्रगट होते हुए द्वारोंको खुलवाया और राजाका दर्शन किया । राजाने वज्रवीर्यको बन्धनमुक्त करके उसे वस्त्राभूषणादि देते हुए अपने देश में वापिस भेज दिया । तब वह सुखपूर्वक स्थित हुआ । इसके उपर्युक्त असत्य वचनका स्मरण करके राजाने आज इसके लिये यह दण्ड घोषित किया है। यह सुनकर नागश्रीने पितासे कहा कि मैंने मुनिके समीपमें असत्य वचनके त्यागका नियम लिया है, फिर उसे क्यों छोड़ ? इसपर पुरोहित बोला कि अच्छा इसे भी रहने दो, चलो शेष व्रतों को वापिस दे आयें ॥२॥ १. बमवीक्ष्य । २. ब थापितवान् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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