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________________ : ३-४, २१-२२] ३. श्रुतोपयोगफलम् ४ प्रय इमान् गृह्णन्तु । सर्वैर्भणितं मया न गृहोत इति । ततः श्रेष्ठो राशोऽकथयच्चोरिकया मे निष्कसहस्रं गतमिति । राजा चण्डकीर्तिनाम्नश्चण्डकर्मण उक्तवान्-चोरं समर्पय, नोचेत्तव शिर इति । चण्डकीर्तिरवोचत्- पञ्चरात्रे चोरं न समर्पयामि चेद्राजा यज्जानाति तत्करोतु । एवमस्त्विति राजाभ्युपजगाम । चण्डकीर्तिर्राप सचिन्तस्तैश्चतुर्भिः स्वगृहं जगाम । तत्पुत्री सुमतिर्वेश्यातिविदग्धा पितरं सचिन्तं विलोक्यापृच्छत-तात, चिन्ताकारणं किमिति । तेम स्वरूपे निरूपिते तयावादि-निश्चिन्तो भवाहं चोरं ते समर्पयामि । तच्चतुर्णा भोजनादिकं दत्त्वा पञ्चरात्रीन् युष्माभिरत्र स्थातव्यमिति प्रतिपाद्यापपरके मञ्चादिकं च दत्त्या चण्डकीर्तिः सभृत्यस्तं' भेदयितुं लम्नः। सातदिने गृहोतग्रहणका तेष्वेकेमाकारयति स्म । तं विलोक्य गहिकायामपवेश्य क्रमेण सर्वानपि उपवेश्योक्तवती चतथैक- स्या जाता। परं किंतु मनसि मे विकल्पो वर्तते, तमपहरत । कथं युष्मासु स्थितं द्रव्यं चौरो जग्राहेति कौतुकम् । तत्र यूयं किं कुर्वन्तः स्थिता इति निरूप्यताम् । तत्रैकेन भएयते-हे सुमतेऽहमेतेषां निरूप्य वेश्यागृहं गतस्तस्मात्पुनः पश्चिमयामे तत्र गतः। अन्येन भण्यतेऽहमविसमूहं गतः । तस्मादेका मेण्ढिका चोरयित्वानीता मया। तदा प्राक्किमभवदिति उन चारोंने कहा कि हमने उस पोटरीको नहीं लिया है। तब सेठने राजासे कहा कि मेरी एक हजार दीनारें चोरी गई हैं । राजाने इस चोरीकी वार्ताको ज्ञात करके चण्डकीर्ति नामके कोतवालको बुलाया और उससे कहा कि जाओ व उस चोरका पता लगाकर मेरे पास लाओ, अन्यथा तुम्हारा शिर काट लिया जावेगा। इस राजाज्ञाको सुनकर कोतवालने कहा कि हे राजन् ! यदि मैं पाँच दिनके भीतर उस चोरको खोजकर न ला सकूँ तो आप जो जाने मुझे दण्ड दें। तब 'ठीक है' कहकर राजाने उसकी यह बात स्वीकार कर ली। चण्डकीर्ति भी चिन्तातुर होकर उन चारोंके साथ अपने घरको गया, उस कोतवालके एक सुमति नामकी अतिशय चतुर पुत्री थी। वह वेश्या थी। उसने पिताको सचिन्त देखकर उससे चिन्ताका कारण पूछा । तब उसने उससे पूर्वोक्त घटना कह दी। उसे सुनकर उसने पितासे कहा कि आप चिन्ताको छोड़ दें, मैं उस चोरका पता लगाकर आपके स्वाधीन करती हूँ। कोतवालने उन चारोंको भोजन आदि दिया और उनसे कहा कि तुम्हें पाँच दिन यहींपर रहना पड़ेगा, उसने उन्हें एक कोठेमें चारपाई आदि भी दे दी। फिर वह अन्य सेवकोंके साथ उस चोरीके रहस्यकी जानकारी प्राप्त करनेमें उद्यत हो गया। इधर उस दिन उस वेश्याने उनमें से प्रत्येकको बुलाया और उसे देखकर गादीपर बैठाया। इस प्रकारसे वह सभीको बैठाकर उनसे बोली कि मैं तुम चारों से किसी एकके ऊपर अत्यन्त आसक्त हुई हूँ। किन्तु मेरे मनमें एक सन्देह है, उसे दूर करो। वह यह कि तुम चारोंके वहाँ रहते हुए भी चोरने वहाँ स्थित द्रव्यका अपहरण कैसे किया और तब तुम लोग क्या कर रहे थे, यह मुझे बतलाओ । इसपर उनमें से एक बोला कि हे सुमते ! मैं इन सबको कहकर वेश्याके घर चला गया था और फिर वहाँसे रातके पिछले पहरमें वहाँ वापिस पहुँचा था। दूसरेने कहा कि मैं भेड़ोंके समूहमें गया था और वहाँसे एक भेड़को चुराकर लाया था। उसके पूर्वमें क्या हुआ, १. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श सभृत्यस्तान् ! २. फ तद्दिने अगृहीत गृहणकालेष्वेकक । ३. श गदिकयामुपवेश्य । ४. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श चतुर्थेष्वेकस्यामहं । ५. श भण्यतेहमेतेषां । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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