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________________ १०८ पुण्यात्रवकथाकोशम् [ ३-४, २१-२२ ततस्तद्वतानि त्यज । पितुराग्रहात तयोदितम्-हे तात, यतिरभाणीद्यदि ते पिता व्रतानि त्याजयति मे समर्पयेति । ततस्तस्य समागच्छामीति निर्गता, तदा सोऽपि । मार्गे कंचन युवानं बद्धंमारयितुं नीयमानम् अभीच्य अवलोक्य [नं वीक्ष्य ] नागश्रीः पितरमपृच्छत्-तात, किमित्ययं बद्ध इति । सोऽवददहं न जानामि कोट्टपालं पृच्छामीति तमपृच्छत् 'किमित्ययं बद्धः' इति । स आह-अत्रैव चम्पायामष्टादशकोटिद्रव्येश्वरो वणिक देवदत्तो भार्या समुद्रदत्ता। तत्पुत्र एक एवायं वसुदत्तनामा अद्याक्षधर्तनामद्यतकारेण द्यूतं क्रीडितवान् दीनारलक्षं हारितवांश्च । तेन स्वद्रव्यम् अत्याग्रहेण याचितम् । अनेन कोपेन छुरिकया स मारित इति मारयितुं नीयत इति निरूपिते नागश्रीरव्रत हिंसायामेवं. विधं दुःखं भवति चेत्तद्विरमणं मया तत्समीपे गृहीतं कथं त्यज्यते । पितावोचत्तिष्ठत्विदमन्यानि समागच्छावश्चलेति ॥१॥ __ ततोऽग्रेऽस्मिन् प्रदेशे कस्यचिदुत्तानस्थितस्य मुखे शूलमाताड्यमानं विलोक्य किमित्येवंविधं दुःखं प्राप्तवान् अयमिति पृच्छति स्म नागश्रीः पितरम् । स कथयति-हे उचित नहीं है । इसलिये तू ग्रहण किये हुए उन व्रतोंको छोड़ दे। नागश्रीने जब पिताका ऐसा आग्रह देखा तब वह उससे बोली कि हे तात ! उस समय मुनिने मुझसे कहा था कि यदि तेरा पिता इन व्रतोंको छुड़ानेका आग्रह करे तो तू इन्हें हमारे लिये वापिस दे जाना। इसलिये मैं जाकर उन्हें वापिस दे आती हूँ। ऐसा कहकर वह घरसे निकल पड़ी। तब पिता भी उसके साथमें गया। इसी समय मार्गमें कोतवाल एक युवा पुरुषको बाँधकर मारनेके लिये ले जा रहा था। उसे देखकर नागश्रीने पितासे पूछा--हे तात ! इसे किसलिये बाँध रक्खा है ? उत्तरमें नागशर्माने कहा कि मैं नहीं जानता हूँ, चलो कोतवालसे पूर्छ । यह कहकर उसने कोतवालसे पूछा कि इस पुरुषको किसलिये पकड़ा है ? कोतवाल बोला-~-इसी चम्पा नगरीमें एक देवदत्त नामका वैश्य है जो अठारह करोड़ द्रव्यका स्वामी है। उसकी पत्नीका नाम समुद्रदत्ता है। उन दोनोंका यह वसुदत्त नामका इकलौता पुत्र है। आज यह अक्षधूर्त नामक जुवारीके साथ जुआ खेलकर एक लाख दीनारोंको हार गया था । अक्षधूर्तने जब इससे अपने जीते हुए धनको आग्रहके साथ माँगा तब क्रोधित होकर इसने उसे छुरीसे मार डाला । यही कारण है जो यह बाँधकर मारनेके लिये ले जाया जा रहा है। कोतवालके इस उत्तरको सुनकर नागश्रीने पितासे कहा कि यदि हिंसाके कारण इस प्रकारका दुख भोगना पड़ता है तो उसी हिंसाके परित्यागका तो व्रत मैंने मुनिके समीपमें ग्रहण किया है। फिर उसे कैसे छोड़ा जा सकता है ? इसपर नागशर्माने कहा कि अच्छा इसे रहने दो, चलो दूसरे सब व्रतोंको वापिस कर आवें ॥१॥ आगे जानेपर नागश्रीने एक स्थानपर किसी ऐसे पुरुषको देखा जो ऊर्ध्वमुख स्थित होकर मुखके भीतरसे गये हुए शूलसे पीड़ित हो रहा था। उसे देखकर नागश्रीने पितासे पूछा कि यह इस प्रकारके दुखको क्यों प्राप्त हुआ है ? नागशर्माने उत्तर दिया कि हे पुत्री ! इस चन्द्रवाहन १.फ श सो पि पितापि। २. बकिंचिधुवानं। ३.५ श नं अभीक्ष्य अवलोक्य नागश्रीः फनं वीक्ष्य अवलोक्य नागश्रीः बनमवीक्ष्य नागश्रीः । ४. फश निरूपितो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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