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________________ १८ पुण्यात्रवकथाकोशम् [३-१, १८ : कायबलद्धि प्राप्तो वालिमुनिस्तत्रत्यचैत्यालयव्यामोहेन वामपादाङ्गुष्ठशक्त्याधो न्यक्षिपत् । तदभराकान्तो निर्गन्तुमशक्तः आरटद्दशास्यः। तदध्वनिमाकर्ण्य विमानास्थितमन्दोदर्यादितदन्तःपुरमागत्य मुनि पुरुषभिक्षां ययाचे । तदा मुनिरङ्गुष्ठसंगं शिथिलीचकार' । ततो निर्गतः सः । मुनेस्तपःप्रभावेनासनकम्पाद्देवा आगत्य पञ्चाश्चर्याणि कृत्वा तं प्रणेमुः । रौतीति रावणः इति दशास्यं रावणाभिधं चक्रुः । स्वर्लोकं जग्मुः । रावणोऽतिनिःशल्यो भूत्वा गतः । मुनिरपि केवली भूत्वा विहृत्य मोक्षमगमदिति। ___ इत्थंभूतो वाली केन पुण्येन जात इति चेद्विभीषणेन सकलभूषणः केवली पृष्टो वालिदेवपुण्यातिशयमचीकथत् । तथाहि- अत्रैवार्यखण्डे वृन्दारण्ये एको हरिणस्तत्रत्यतपोधनागमपरिपाटि प्रतिदिनं शृणोति । तजनितपुण्येनायुरन्ते मृत्वा अत्रैव ऐरावतक्षेत्रेऽश्वत्थपुरे वैश्यविरहितशीलवत्योरपत्यं मेघरत्ननामा जातोऽणुव्रतेनैशानं गतः। ततोऽवतीर्य पूर्व विदेहे कोकिलाग्रामे वणिक्कान्तशोकरत्नाकिन्योरपत्यं सुप्रभोऽभूत्तपसा सर्वार्थसिद्धिं गतः । ततो वालिदेवोऽभूदिति परमागमशब्दश्रवणमात्रेण हरिणोऽप्येवंविधोऽभूदन्यः किं न स्यादिति ॥१॥ ऋद्धि प्राप्त हो चुकी थी। पर्वतके उठानेसे उसके ऊपर स्थित जिनभवन नष्ट हो सकते हैं, इस विचारसे उन्होंने अपने बायें पैरके अँगूठेकी शक्तिसे पर्वतको नीचे दबाया। उसके भारसे दबकर रावण वहाँसे निकलने के लिए असमर्थ हो गया । तब वह रुदन करने लगा। उसके आक्रन्दनको सुनकर विमानमें स्थित मन्दोदरी आदि अन्तःपुरकी स्त्रियोंने आकर मुनिराजसे पतिभिक्षा माँगी। तब वालि मुनीन्द्रने अपने अंगूठेको शिथिल कर दिया। इस प्रकार वह रावण बाहर निकल सका । मुनिराजके तपके प्रभावसे देवोंके आसन कम्पित हुए। तब उन सबने आकर पंचाश्चर्यपूर्वक मुनिराजको नमस्कार किया। रावण चूँकि कैलासके नीचे दबकर रोने लगा था, अतएव 'रौतीति रावणः' इस निरुक्तिके अनुसार शब्द करनेके कारण उक्त देवोंने उसका रावण नाम प्रसिद्ध किया। तत्पश्चात् वे स्वर्गलोकको वापिस चले गये। फिर रावण भी अतिशय शल्य रहित होकर चला गया। उधर मुनिराजने भी केवलज्ञानके उत्पन्न होनेपर विहार करके मुक्तिको प्राप्त किया । वालि किस पुण्यके प्रभावसे ऐसी अलौकिक विभूतिको प्राप्त हुआ, इस प्रकार विभीषणने सकलभूषण केवलीसे प्रश्न किया। इसपर उन्होंने वालिदेवके पुण्यातिशयको इस प्रकार बतलायाइसी आर्यखण्डके भीतर वृन्दावनमें एक हिरण रहता था । वहाँपर स्थित साधु जब आगमका पाठ करते थे तब वह हिरण उसे प्रतिदिन सुना करता था। इससे उत्पन्न हुए पुण्यके प्रभावसे वह आयुके अन्तमें मरकर इसी जम्बूद्वीप सम्बन्धी ऐरावत क्षेत्रके भीतर अश्वत्थपुरमें वैश्य विरहित और शीलवतीके मेघरत्न नामका पुत्र हुआ। वह अणुव्रतोंका पालन करके ईशान स्वर्गको प्राप्त हुआ। पश्चात् वहाँ से च्युत होकर वह पूर्व-विदेहके भीतर कोकिला ग्राममें वैश्य कान्तशोक और रत्नाकिनीके सुप्रभ नामका पुत्र हुआ। तत्पश्चात् वह तपके प्रभावसे सर्वार्थसिद्धि विमानमें अहमिन्द्र हुआ। वहाँ से च्युत होकर वह वालिदेव हुआ है । इस प्रकार परमागमके शब्दोंके सुनने मात्रसे जब एक हिरण पशु भी ऐसी समृद्धिको प्राप्त हुआ है तब दूसरा विवेकी जीव क्या न होगा ? वह तो सब प्रकारकी ही समृद्धिको प्राप्त कर सकता है ॥१॥. १. ब शिथिलं चकार । २. श रावणो इतिौं । ३. फ वालि । ४. श आयुरन्तेन । ५. फ स्वच्छपुरे प शश्वस्थपुरे । ६. श मेघरभनामा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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