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________________ : ३-१, १८] ३. श्रुतोपयोगफलम् . यान्यत् सर्वे करोमीत्युक्ते दूतोऽवदन्नमस्कार एव कर्तव्योऽन्यथा विरूपकं ते स्यात् । वालिनोक्तं यद् भवति तद् भवतु, याहीति विसर्जितः सः। ततो दशमुखः सर्वमवधार्य सकलसैन्येनागत्य किष्किन्धाद्वहिरस्थात् । वाली स्वमन्त्रिवचनमुल्लच्य स्वबलेन निर्जगाम अभ्यर्णयोः सेनयोरुभयमन्त्रिभिमन्त्रो दृष्टोऽनयोर्मध्ये एकः प्रतिवासुदेवोऽन्यश्चरमाङ्गस्ततोऽनयो रणे मृत्युर्नास्ति बलं त्वावर्तेत ततो द्वावेव युद्धं कुरुतामिति । तावभ्युपगमयांचक्रतुः । ततस्तयोमहत् युद्धं बभूव । बृहद्वेलायां वाली दशकन्धरं बबन्ध मुमोच च । तमितव्यं विधाय स्वभ्रात्रे सुग्रीवाय राज्यं वितीर्य तं दशास्यस्य परिसमj'दीक्षितः। सकलागमधर एकविहारी च भूत्वा कैलासे प्रतिमायोगं दधौ । तदा रत्नावलीनामकन्याविवाहनिमित्तं गच्छतो दशास्यस्य तस्योपरि स्खलितं विमानम् । किमित्यवलोकनार्थ भूमाववतीर्य तमपश्यत् । अवबुध्य तं चानेन कोपेन स्खलितमिति ततः क्रुध्वा नगेन सार्धममुमुत्थाप्य समुद्र निक्षिपामीति भूम्यां विवेश'। स्वशक्त्या विद्याभिश्च नगमुद्दधे दशास्यः। आदेश देना योग्य नहीं है । मैं नमस्कारके अतिरिक्त अन्य सब कुछ करनेको उद्यत हूँ। यह सुनकर दूत बोला- आपको रावण के लिए नमस्कार करना ही चाहिए, अन्यथा आपका अनिष्ट होना अनिवार्य है । तब वालिने कहा कि जो कुछ भी होना होगा हो, तुम जाओ; यह कहकर उसने दूतको वापिस कर दिया । दूतसे इस सब समाचारको सुनकर रावण समस्त सेनाके साथ आया और किष्किन्धापुरके बाहर ठहर गया । उधर वालि मंत्रियोंकी सलाहको न मानकर अपनी सेनाके साथ युद्धके लिए निकल पड़ा। दोनों ओरकी सेनाओंके एक दूसरेके अभिमुख होनेपर उनके मंत्रियोंने विचार किया कि इन दोनोंमें एक तो प्रतिनारायण है और दूसरा चरमशरीरी है, अतएव इनमें से युद्धमें किसीका भी मरण सम्भव नहीं है; परन्तु सेनाका नाश अवश्य होगा। इसीलिए उन दोनोंको ही परस्परमें युद्ध करना चाहिए । इस बातको उन दोनोंने भी स्वीकार कर लिया। तदनुसार उन दोनोंके बीच घोर युद्ध हुआ। इस प्रकार बहुत समय बीतनेपर वालिने रावणको बाँध लिया और तत्पश्चात् उसे छोड़ भी दिया । फिर वालिने उससे क्षमा-याचना करके अपने भाई सुग्रीवको राज्य देकर उसे रावणके लिए समर्पित कर दिया और स्वयं दीक्षित हो गया । तत्पश्चात् वह समस्त आगमका पारगामी होकर एकविहारी हो गया। एक दिन वह कैलाश पर्वतके ऊपर प्रतिमायोगको धारण करके समाधिस्थ था। उस समय रावण रत्नावली नामकी कन्याके साथ विवाह करनेके लिए विमानसे जा रहा था। उसका विमान वालि मुनिके ऊपर आकर रुक गया। तब विमान रुकनेके कारणको ज्ञात करनेके लिए वह नीचे पृथिवीपर उतरा । उसे वहाँ वालि मुनि दिखायी दिये। उसने समझा कि इसने ही क्रोधसे मेरे विमानको रोक दिया है। इससे उसे बहुत क्रोध उत्पन्न हुआ। तब वह उसे पर्वतके साथ उठाकर समुद्र में फेंक देनेके विचारसे पृथ्वीके भीतर प्रविष्ट हुआ। इस प्रकार रावण अपनी शक्तिसे और विद्याओंके बलपर उस पर्वतके उठाने में उद्यत हो गया। उस समय वालि मुनिको कायबल १. फ वालि । २. ५ श युद्धे । ३. फ वालि ब वली। ४. ५ ब श स्वभ्रातुः । ५. ब दशास्य समय श दशास्य परिसमय । ६. ब'च' नास्ति । ७. श गच्छसतो दशास्य तस्योपरि। ८. व अवघ्यवानेन । ९. प श क्रुद्धा । १०. प श मुच्चाप्य ब मुच्चार्य । ११. ब विवेश्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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