SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६ : ३-२, १९] ३. श्रुतोपयोगफलम् २ [१६] पद्मावासतटे विशुद्धलतिके नानाद्रुमैः शोभिते हंसो बोधविवर्जितोऽपि समुदं श्रुत्वा मुमुक्षुदितम् । जातः पुण्यसुदेहको हि सुगुणः ख्यातः प्रभामण्डलो धन्योऽहं जिनदेवकः सुचरणस्तत्प्राप्तितो भूतले ॥२॥ अस्य कथा-अत्रैवार्यखण्डे मिथिलानगर्या राजा जनको देवी विदेही। तस्या गर्भसंभूतौ युगलमुत्पन्नम् । तत्र कुमारो धूमप्रभासुरेण मारणार्थ नीयमानेन[मानो] तन्मुखावलोकनेन प्राप्तदयेन स्वकुण्डलौ तत्कर्णयोनिक्षिप्य पर्णलघुविद्यायाः समर्पितो यत्रायं वर्धते तत्रा, निक्षिपेति । सा तं कृष्णरात्री गगने यावन्नयति तावद्विजयार्धदक्षिणश्रेणिस्थरथनूपुरपुरेशेन्दुगतिना कुण्डलप्रभया दृष्टः । तदनु तेन हस्तौ प्रसारितौ । देवी तद्धस्ते तं निक्षिप्य गता । तेन स बालः स्ववल्लभापुष्पवत्यास्ते पुत्रोऽयमिति समर्पितस्तत्पुत्रोऽयमिति सर्वत्र घोषणा च कृता । स तत्र प्रभामण्डलाभिधानेन वृद्धि जगाम । सर्वकलाकुशलो युवा चासीत् । इतस्तत्पितरौ तद्वियोगातिदुःखं चक्रतुः। बुधसंबोधितौ तनुजायाः सीतेति नाम उत्तम लताओंसे सहित व अनेक वृक्षोंसे सुशोभित किसी तालाब के किनारेपर रहनेवाला एक हंस अज्ञान होकर भी मुमुक्षु मुनिके द्वारा उच्चारित आगमवचनको सहर्ष सुनकर उत्तम शरीरसे सुशोभित एवं श्रेष्ठ गुणोंसे सम्पन्न प्रसिद्ध प्रभामण्डल (भामण्डल) हुआ। इसीलिए जिनदेवका भक्त मैं इस पृथिवीतलके ऊपर उक्त जिनवाणीकी प्राप्तिसे चारित्रको धारण करके कृतार्थ होता हूँ ॥२॥ इसकी कथा- इसी आर्यखण्डके भीतर मिथिला नामकी नगरीमें राजा जनक राज्य करता था । रानीका नाम विदेही था । विदेहीके गर्भ रहनेपर उससे बालक और बालिकाका एक युगल उत्पन्न हुआ। इनमेंसे कुमारको धूमप्रभ नामका असुर मार डालनेके विचारसे उठा ले गया । मार्गमें जब वह उस बालकको ले जा रहा था तब उसे उसका मुख देखकर दया आ गई। इससे उसने उसके कानों में अपने कुण्डलोंको पहिना करके पर्णलघु विद्याको समर्पित करते हुए उसे आज्ञा दी कि जहाँपर यह वृद्धिंगत हो सके वहाँपर ले जाकर इसे रख आ। तदनुसार वह कृष्ण पक्षकी अँधेरी रातमें उसे आकाशमार्गसे ले जा रही थी। तब उसे कुण्डलोंकी कान्तिसे इन्दुगति विद्याधरने देख लिया । यह विद्याधर विजयाध पर्वतकी दक्षिणश्रेणिमें स्थित रथन पुरका स्वामी था । बालकको देखकर उसने अपने दोनों हाथोंको फैला दिया। तब देवी उसे उसके हाथों में छोड़कर चली गई। इन्दुगतिने उसे ले जाकर अपनी प्रिय पत्नी पुष्पावतीको देते हुए उससे कहा कि लो यह तुम्हारा पुत्र है। रानीके पुत्र उत्पन्न हुआ है, ऐसी उसने सर्वत्र घोषणा भी करा दी । वह वहाँ प्रभामण्डल इस नामसे प्रसिद्ध होकर वृद्धिंगत हुआ। वह कालान्तरमें समस्त कलाओं में कुशल होकर युवावस्थाको प्राप्त हो गया । इधर मिथिलामें उसके माता-पिता उसके वियोगसे अतिशय दुखी हुए। उन्होंने विद्वानोंसे प्रबोधित होकर जिस किसी प्रकारसे उस शोकको छोड़ा । फिर वे पुत्रीका सीता यह नाम १. श विशुद्ध तिलके । २. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श सुदेहिको। ३. फश प्राप्तोदयेन । ४. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श पुष्पावत्यास्ते । ५..प बुद्ध । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy