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________________ पुण्यानवकथाकोशम् [२-६, १७ : वसतिकां तत्र मुनि पृच्छाव इति । ततस्तत्र गत्वा जिनं पूजयित्वा संतुष्टुवतुर्मुनिं सुगुप्तं ववन्दाते । तदनु श्रेष्ठी तमपृच्छत् स्वप्नफलम् । सोऽकथयत् गिरिदर्शनेन धीरोऽमरद्रुमावलोकालक्ष्मीनिवासस्त्यागी च सुरगृहदर्शनात्सुरवन्द्यः सागरावलोकाद् गुणरत्नाधारो वह्निविलोकनादग्धकर्मेन्धनश्च पुत्रोऽस्या भविष्यतीति श्रुत्वा संतुष्टौ स्वगृहे सुखेन तस्थतस्ततः पुष्यशुक्लचतुर्थ्यां पुत्रो जशे । सुदर्शनाभिधानेन पुरोहितपुत्रकपिलेन सह वर्धितुं लग्नः।। तदा तत्रापरो वैश्यः सागरदत्तो वनिता सागरसेना । स वृषभदासं प्रति बभाण यदि मम पुत्री स्यात् सुदर्शनाय दास्यामीति । ततस्तयोर्मनोरमानाम्नी तनुजा आसीदिति । रूपवती सापि वर्धमानाऽस्थात् । एकदा शास्त्रास्त्रविद्याप्रगल्भो युवा च सुदर्शनो मित्रादियुक्तः स्वरूपातिशयेन जनान् मोहयन् राजमार्गे कापि गच्छन् सुशृङ्गारां सखीजनादिवृतां मनोरमां जिनगृहं गच्छन्तीमद्राक्षीत् । आसक्तो बभूव, व्यावृत्त्य स्वगृहं जगाम, शय्यायां पतित्वास्थात्। तदवस्थां विलोक्य पितरावपृच्छतां किमिति तवेयमवस्थेति । यदा स न कथयति तदा कपिलभट्ट पृष्टवन्तौ । तेन मनोरमादर्शनकारणमिति कथिते तद्याचनार्थ सागरदत्तगृहे गमनोद्यतोऽभूद् वृषभदासो यावत्सुदर्शनाद्विरहाग्निदग्धगात्रा मनोरमापि व्यावृत्य स्वगृहं गत्वा देखा। जब उसने पतिसे इन स्वप्नोंके विषयमें कहा तब सेठने कहा कि चलो जिनमन्दिर चलकर उनका फल मुनिराजसे पूर्छ । तब वे दोनों जिनमन्दिर गये। वहाँ उन्होंने जिन भगवान्की पूजा और स्तुति करके सुगुप्त मुनिकी वन्दना की। तत्पश्चात् सेठने मुनिराजसे उक्त स्वप्नोंका फल पूछा। उत्तरमें मुनिराजने कहा कि मेरुके देखनेसे धीर, कल्पवृक्षके देखनेसे सम्पत्तिशाली होकर दानी, देवभवनके दर्शनसे देवोंके द्वारा वंदनीय, समुद्र के दर्शनसे गुणरूप रत्नोंकी खानि, तथा अग्निके देखनेसे कर्मरूप इन्धनको जलानेवाला; ऐसा इस जिनमतीके पुत्र होगा। यह सुनकर वे दोनों सन्तुष्ट होकर अपने घर आये और सुखपूर्वक स्थित हुए। तत्पश्चात् पौष शुक्ला चतुर्थीके दिन जिनमतीके पुत्र उत्पन्न हुआ। उसका नाम सुदर्शन रखा गया। वह पुरोहितपुत्र कपिलके साथ उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होने लगा। उपर्युक्त नगरमें एक सागरदत्त नामका दूसरा वैश्य रहता था। उसकी पत्नीका नाम सागरसेना था । उसने वृषभदास सेठसे कहा कि यदि मेरे पुत्री होगी तो मैं उसे सुदर्शनके लिए प्रदान करूँगा । तत्पश्चात् सागरदत्त और सागरसेनाके एक मनोरमा नामकी पुत्री उत्पन्न हुई। वह सुन्दर कन्या भी उत्तरोत्तर वृद्धिको प्राप्त होने लगी। एक दिन शास्त्र व शस्त्र विद्यामें विशारद युवक सुदर्शन अपनी अत्यधिक सुन्दरतासे लोगोंके मनको मोहित करता हुआ मित्रादिकोंके साथ राजमार्गसे कहीं जा रहा था । उस समय मनोरमा वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत होकर सखीजनों आदिके साथ जिनमन्दिरको जा रही थी। उसे देखकर सुदर्शन आसक्त हो गया। तब वह लौटकर घर वापिस चला गया और शय्याके ऊपर पड़ गया। उसकी इस अवस्थाको देखकर माता पिताने इसका कारण पूछा । परन्तु उसने उसका कुछ उत्तर नहीं दिया । तब उन्होंने कपिल भट्टसे पूछा । उसने इसका कारण मनोरमाका देखना बतलाया । यह सुनकर वृषभदास सेठ मनोरमाको मांगनेके लिए सागरदत्त सेठके घर जानेको उद्यत हो गया। इतने में सागरदत्त सेठ स्वयं ही वृषभदासके घर आ पहुँचा । उसके आनेका कारण यह था कि जबसे मनोरमाने भी सुदर्शनको देखा था तभीसे उसका १. प फ रत्नधरो। २. प श विलोकादृग्ध । ३. श दासं प्रबभाण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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